Book Title: Ratnakarandak Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Mannulal Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
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[श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार
भोजन करना तो उसी का सफल है जो दानपूर्वक भोजन करता है। अपना पेट तो पशु भी भर लेते हैं। जिसके घर में पात्र दान होता है उसी का गृहस्थपना सफल है। दान बिना पशुओं के भी रहने योग्य बिल होते ही हैं, पक्षियों के घोंसले होते ही हैं। जैसे - समुद्र में जल भी बहुत है तथा रत्न भी बहुत हैं; परन्तु जल तो महा खारा है तथा मगरमच्छों से भरा होने से रत्न निकाल नहीं सकते, इसलिये रत्न व जल उपकार न कर सकने के कारण निष्फल हैं; उसी तरह कृपण धनवान का धन दूसरों का उपकार रहित होने से निष्फल ही है।
जिस गृहस्थ ने धन पाकर के साधर्मियों के उपकार में, दीन, अनाथों के सत्कार में नहीं खर्च किया वह धन उसका नहीं है। वह धन तो किसी अन्य पुण्यवान का है, यह तो उस धन का पुण्यवान की ओर से रखवाला है, चौकसी करता है। धन का असली मालिक तो कोई दूसरा ही पुण्यवान है, जो दान-भोग में लगावेगा। जिसके घर में पात्र आ जाय तथा देने को सामग्री भी हो फिर भी नहीं दिया जाय, तो उसके हाथ में आया हुआ चिन्तामणि रत्न नष्ट हुआ ही जानो।
जो धन को पाकर दान में नहीं लगाता है वह मूढ़ अपने आत्मा को ठगता है। जो धन को दान में लगाता है। वह उस धन का स्वामी है। जिसके परिणाम दान को देने में, पात्र को खोजने में निरन्तर लगे रहते हैं उससे दान नहीं भी हो पाये, तो भी उससे निरन्तर दान ही हो रहा है। ऐसा समझो। धन चाहे थोड़ा हो चाहे अधिक हो, पात्र को पाकर जो अति भक्तिपूर्वक दान देता है वही सच्चा दातार है। भक्ति रहित के दातापना नहीं होता है।
निर्दोष दान : जो अवसर छोड़कर अकाल में दान देते हैं उनका दान अकाल में बोये बीज के समान निष्फल चला जाता है। जो अपात्र को दान देते हैं उनका दान बंजर भूमि में बोये बीज के समान निरर्थक हो जाता है। दुष्ट को दिया दान सर्प को पिलाया दूध-मिश्री के समान दातार को संसार के घोर दुख, मरण, जलन देने को विष के समान फल देता है।
अपने भाग्यप्रमाण जितना धन मिले उतने में दान का हिस्सा निकालने का भाव करना चाहिये। ऐसा नहीं विचारना चाहिये कि – यदि मेरे पास अधिक धन होता तो अधिक दान करता। इस प्रकार दान करने के लिये अभिमानी होकर धन की वांछा नहीं करो। आपके लाभान्तराय कर्म के क्षयोपशम से जितना धन का लाभ हुआ हो उतने में ही संतोष धारण करके अधिक धन की वांछा नहीं करना वही बड़ा दान है।
अपने को जो न्यायपूर्वक धन प्राप्त हुआ है उसमे जिसका ऐसा परिणाम निरन्तर रहता है कि मेरे धन में से किसी के लिये कुछ काम आ जाय तो मेरा धन कमाना सफल है। अपने घर के खर्च में, लेने-देने में कोई मुझसे कुछ कमा ले तो ये ही मुझे बड़ा लाभ है। ऐसे परिणाम वाला दातार होना चाहिये।
जो भी दान दे वह हर्षित चित्त से दे। यदि दान तो दे किन्तु क्रोध करके, अपमान करके, तिरस्कार के वचन कहकरके, रोष करके, दूषण लगाकरके, दुखी होकरके दे तो उस दातार का इस
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