Book Title: Ratnakarandak Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Mannulal Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
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[ श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार
अब चार प्रकार के दान कहनेवाला श्लोक कहते हैं :
आहारौषधयोरप्युपकरणावासयोश्च दानेन ।
वैयावृत्यं ब्रुवते चतुरात्मत्वेन चतुरस्त्रा: ।।११७ ।।
अर्थ :- चतुरस्त्र अर्थात् जो प्रवीण ज्ञानी हैं वे आहारदान, औषधिदान, उपकरणदान व आवासदान ये चार प्रकार के दान करके वैयावृत्य को चार प्रकार का कहते हैं।
इस प्रकार गृहस्थ के चार प्रकार का दान करना कहा है। अभयदान की प्रधानता तो छह काय के जीवों की कृत- कारित - अनुमोदना से विराधना के त्यागी दिगम्बर मुनिराजों के होती है। श्रावकों के भी त्रस जीवों की संकल्पी हिंसा के त्याग के अभयदान ही है । परन्तु अभयदान की मुख्यता तो आरम्भ के त्याग से तथा विषयों की अत्यन्त पराङ्मुखता से होती है। जब तक गृह कार्यों से, सम्पदा से, न्यायरूप विषयों से परिणाम विरक्त नहीं होते तब तक आहार आदि चार प्रकार के दान करके पापों का नाश करो ।
संपत्ति की अस्थिरता : सम्पत्ति, आयु, काय, अत्यन्त अस्थिर है। गृहस्थ दशा तो दान से ही पूज्य है। आहार आदि दान बिना गृहस्थपना तो पाप के आरंभ के भार से पाषाण की नाव के समान केवल संसार समुद्र में डुबोनेवाला है।
ज्ञानी गृहस्थ विचार करता है
यह धन जो मैंने कमाया है, पिता आदि का रखा हुआ मुझे बिना कष्ट के प्राप्त हो गया है तथा राज्य, ऐश्वर्य, देश, नगर, आभरण, वस्त्र, स्त्री, सेवकों का समूह सब बिना खेद ही मुझे प्राप्त हो गया है, वह सब पूर्व जन्म में दान दिया, दुखी जीवों का पालन पोषण किया था उसके फल है । पर के धन में स्वप्न में भी चित्त नहीं चलाया, परम संतोष धारणकर विषयों से विरक्त होकर निर्वाछकता धारण की उसका फल है। दीन, दु:खी, रोगी, असमर्थ, बालक, वृद्धों की दया धारणकर उपकार किया उसका फल यह सम्पति का मिलना है।
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दो दिन ही इस सम्पत्ति का संयोग है, परलोक साथ में नहीं जायगी, जमीन में गड़ी रहेगी, दूसरे देश में रखी रह जायगी, दूसरे के पास ही रह जायगी, स्त्री- पुत्र - कुटुम्ब के भागीदार मालिक बन जायेंगे, राजा लूट लेगा, तथा मैं अचानक मर कर दुर्गति में चला जाऊँगा। मैंने यह धन सैकड़ों दुर्ध्यान करके, महापाप के आरंभ करके, अनेक देशों में-क्षेत्रों में भ्रमण करके, बड़े कष्ट और कपट से कमाया था, प्राणों से भी अधिक इसकी रक्षा की, अब कैसे इस धन को छोड़कर मर जाऊँ ? ऐसा विचार करना उचित नहीं है ।
जगत में देखो ! यदि लाखों का धन हो, तो भोगने में सभी नहीं आ जाता है । भोगने में तो आधा सेर अन्न आता है। तृष्णा ऐसी बढ़ती जाती कि अब और धन बढ़ा लूँ ; अहो ! अन्य के पास तो पचास लाख धन हो गया, मेरे पास तो पांच लाख ही है; अब और धन कैसे बढ़ाऊँ ? कौन आरंभ करूं, कौन उपाय करूँ, कौन राजादि को प्रसन्न करूँ, कौन व्यापार करूँ, किससे मित्रता
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