Book Title: Ratnakarandak Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Mannulal Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
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[श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार सामयिकं प्रतिदिवसं यथावदप्यनलसेन चेतव्यम् ।
व्रतपञ्चक परिपूरण कारणमवधान युक्तेन ।।१०१।। अर्थ :- काय की चेष्टारूप कार्यों से विरक्त बाह्य आरंभ से छूटकर तथा अन्तरात्मा रूप मन को भी विकल्प रहित करके, उपवास के दिन या एकासन के दिन सामायिक में बैठना चाहिये। आलस्य रहित पुरुष प्रतिदिन नियम से एकाग्रचित्त होकर सामायिक करता हुआ अपनी आत्मा से परिचय बढ़ाता जाता है। कैसी है सामायिक ? अहिंसा आदि पाँच व्रतों की परिपूर्णता का कारण है।
भावार्थ :- जो सामायिक करने में उद्यमी श्रावक है, वह समस्त आरंभ आदि शरीर की क्रिया का त्याग करके मन के विकल्पों को भी छोड़कर सामायिक करता है। कोई तो पर्व का निमित्त पाकर जिस दिन उपवास करता है उस दिन ही सामायिक करता है, कोई एकासन के दिन सामायिक करता है, कोई प्रतिदिन एक बार सामायिक कहता है। कोई प्रतिदिन प्रात: व संध्याकाल - दो बार सामायिक करता है। कोई प्रतिदिन पूर्वात्त, मध्याह्न, अपराह्न – तीनों कालों में दो-दो घड़ी का नियम लेकर साम्यभाव की आराधना करता है। वह एक स्थान में निश्चल पर्यंक आसन में या कायोत्सर्गरूप निश्चल आसन लगाकर अंग-उपांगों का चलायमानपना छोड़कर, काष्ठ-पाषाण से बने प्रतिबिंब के समान अचल होकर, दशों दिशाओं को नहीं देखता हुआ, अपने अंग-उपांगों को नहीं देखता हुआ, किसी से बाते नहीं करता हुआ, समस्त पाँचों इंद्रियों के विषयों से मन को रोककर, समस्त चेतन, अचेतन द्रव्यों में राग, द्वेष, हर्ष-विषाद, बैर-स्नेह आदि छोड़कर सामायिक में बैठा हुआ समस्त जीवों के प्रति मैत्री धारण करता हुआ परम आराधना करता है।
बैर त्याग : सामायिक में बैठा हुआ मनुष्य विचार करता है – मैं सर्व जीवों के प्रति क्षमा धारण किये हूँ, कोई जीव मेरा बैरी नहीं है। मेरा उपार्जन किया हुआ मेरा कर्म ही बैरी है। मैं अज्ञान भाव से क्रोधी, अभिमानी, लोभी होकर विपरीत परिणामी हुआ। जिसकी प्रवृत्ति से मेरा अभिमान आदि पुष्ट नहीं हुआ तो उस ही को बैरी मान लिया; जिसने मेरी प्रशंसा नहीं की, मेरे कार्यों की प्रशंसा नहीं की उस ही को बैरी समझ लिया, जिसने मेरे आदर-सत्कार, उठकर स्थान देना इत्यादि में शिथिलता दिखाई उस ही को बैरी जान लिया; जिसने मेरा कोई दोष बताया उस ही को बैरी जान लिया; कोई मेरे अधीन नहीं चला, मुझे कुछ भोजन, वस्त्र, धन आदि नहीं दिया, उस ही को बैरी मान लिया। ये सभी मेरी कषाय से उत्पन्न दुर्बुद्धि से अन्य जीवों के प्रति बैर बुद्धि हुई है, उसे छोड़कर क्षमा अंगीकार करता हूँ। अन्य सभी जीव भी मेरे अज्ञान भाव को विषय-कषायों के अधीन हुआ जानकर मेरे ऊपर क्षमा करो, मुझे माफ करो।
इस प्रकार बैर-विरोध की भावना छोड़कर मैं सभी जीवों के प्रति समता भाव धारण करके सामायिक अंगीकार करता हूँ। इस प्रकार दो घड़ी तक मन से, वचन से, काय से सभी पाँच इंद्रियों के विषयों को, समस्त आरम्भ-परिग्रह को छोड़कर भगवान पंचपरमेष्ठी का स्मरण करता हुआ बैठता है। इस प्रकार सामायिक के काल में प्रतिज्ञा करके पंच नमस्कार मंत्र के अक्षरों का ध्यान करता
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