Book Title: Ratnakarandak Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Mannulal Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
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से, अपने को कृतार्थ मानकर, अपने मन, वचन, काय को तथा गृहस्थ अवस्था की प्राप्ति को कृतार्थ मानकर आहार दान देता है, आनंद सहित अपने को कृतकृत्य मानता है, वही वैयावृत्य है। अब संयमीजनों की वैयावृत्य के और भी कार्य हैं, उन्हे बतलानेवाला श्लोक कहते हैं:व्यापत्तिव्यपनोदः पदयोः संवाहनं च गुणरागात् । वैयावृत्यं यावानुपग्रहोऽन्योऽपि संयमिनाम् ।।१९२।।
अर्थ :- संयमीजनों पर आई हुई अनेक प्रकार की आपत्तियों को दूर कर देना, उनके चरण मर्दन करना तथा उनके गुणों में अनुराग करके आवश्यकतानुसार कार्य कर देना वैयावृत्य है।
भावार्थ : साधुओं के ऊपर किसी देव, मनुष्य तिर्यंच या अचेतन द्वारा उपसर्ग किया गया हो तो अपनी शक्ति प्रमाण उसे दूर कर देना चाहिये । चोर, भील, दुष्ट आदि द्वारा रास्ते कहीं कष्ट पहुँचाया हो जिससे उन मुनिराज के परिणाम क्लेशित हो गये हों तो उन्हें धैर्य धारण कराना; रास्ते में चलने से थक गये हों तो उनके पैर मर्दन करना; रोगी हो तो जैसे उनका संयम मलिन न हो वैसे यत्नाचार से आसन, शैया, वस्तिका - निवास ठीक करना; यत्नाचारपूर्वक ही उठाना, बैठाना, शयन कराना, नीहार कराना; यदि अबुद्धिपूर्वक मल-मूत्रादि अयोग्य स्थान पर या वस्तिका में हो गया हो तो यत्नपूर्वक ही उठाकर उचित स्थान पर फेंक देना, कफ नासिका मल आदि को पोंछना, उठाकर अविरूद्ध स्थान में फेंक देना; आहार औषधि आदि यदि संयमी को देने योग्य अपने पास हो तो उन्हें उचित अवसर में देकर वेदना दूर कर देना ।
काल के योग्य, बाधा रहित वस्तु का देना, यदि वेदना से चित्त चलायमान हो गया हो तो उपदेश देकर चित को थामना, धर्म कथा करना, अनुकूल प्रर्वतना, गुणों का स्तवन करना, इस प्रकार संयमियों के गुणों में अनुराग करके जितना भी उपकार करना है वह सब वैयावृत्य हे।
अब वैयावृत्य में प्रधान आहारदान है उसे बतलाने वाला श्लोक कहते हैं:
नवपुण्यैः प्रतिपत्ति सप्तगुणसमाहितेन शुद्धेन । अपसूनारम्भाणामार्याणामिष्यते दानम् ।।११३।।
अर्थ :- जो दातार सप्तगुण सहित, नवधा भक्ति सहित होकर सूना रहित, आरम्भ रहित, सम्यग्दर्शन के धारी मुनियों को नव पुण्य परिणामों सहित अर्थात् आदरपूर्वक गौरव सहित अंगीकार करता है उसे दान कहते हैं ।
भावार्थ :- दान तीन प्रकार के पात्रों को देना चाहिये। उनमें उत्तमपात्र दिगम्बर साधु हैं जो पाँच सूना- चक्की, चूल्हा, ओखली, बुहारी, परींडा - पानी की क्रियाओं से रहित हैं; घर, गृहस्थी, आजीविका आदि से लेकर समस्त आरम्भ से रहित हैं; तथा सम्यग्दर्शन सहित ही होते हैं। मध्यमपात्र सम्यग्दर्शन सहित व्रतों का धारी श्रावक है । जघन्यपात्र व्रतरहित किन्तु सम्यग्दर्शन से युक्त गृहस्थ है।
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