Book Title: Ratnakarandak Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Mannulal Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates प्रथम सम्यग्दर्शन अधिकार
[३५ अब प्रभावना नाम का सम्यक्त्व का अष्टम अंग को कहनेवाला श्लोक कहते हैं -
अज्ञानतिमिरव्याप्तिमपाकृत्य यथायथम् ।
जिनशासनमाहात्म्यप्रकाशः स्यात्प्रभावन ।।१८।। अर्थ :- संसारी जीवों के हृदय में अज्ञानरूपी अंधेरा फैला हुआ है, उसे सच्चे स्वरूप के प्रकाश से दूर करके जिनेन्द्र के शासन का माहात्म्य बतलाना - प्रकाश करना वही प्रभावना नाम का सम्यक्त्व का आठवां अंग है।
यहाँ ऐसा विशेष जानना :- अनादिकाल का संसारी जीव सर्वज्ञ, वीतराग द्वारा प्रकाशित धर्म को नहीं जानता है। इसी कारण से इसे यह भी ज्ञान नहीं है कि मैं कौन हूँ ? मेरा स्वरूप कैसा है ? मेरा जब यहाँ जन्म नहीं हुआ था तब मैं कहाँ था, कैसा था ? यहाँ मुझे किसने उत्पन्न किया ? रात-दिन आयु बीतकर नष्ट हो रही है, मुझे करने योग्य क्या है ? मेरा हित क्या है ? आराधने योग्य कौन है ? जीवों को अनेक प्रकार के सख-दःख क्यों होते हैं ? देव-गुरु-धर्म का स्वरूप कैसा है ? मृत्यु का , जीवन का क्या स्वरूप है ? भक्ष्य-अभक्ष्य का स्वरूप क्या है ? इस पर्याय में मुझे करने योग्य कार्य क्या है ? मेरा कौन है, मैं किसका हूँ ? इत्यादि विचार रहित मोहनीय कर्मकृत अंधकार से आच्छादित हो रहे हैं। उनके अज्ञानरूप अंधकार को स्याद्वादरूप परमागम के प्रकाश से दूरकर, स्व-रूप और पर-रूप का प्रकाश-ज्ञान करना वह प्रभावना नाम का अंग है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र द्वारा आत्मा का प्रभाव-माहात्म्य प्रकट करना वह प्रभावना है; दान, तप, शील, संयम, निर्लोभता, विनय, प्रियवचन, जिनेन्द्रपूजन, गुण प्रकाशन द्वारा जिनधर्म का माहात्म्य-प्रभाव प्रकट करना वह प्रभावना है।
जिनके उत्तम परिणामों से होनेवाले उत्तमदान, घोरतप, निर्वाछकता आदि को देखकर मिथ्यामती भी प्रशंसा करते हैं। कहते हैं - देखो, अहो! जैनियों के यह वात्सल्यता सहित बड़ा दान है; यह निर्वाछक ऐसा तप जैनियों से ही बन सकता है। अहों! जैनियों का बड़ा व्रत है कि प्राण जाने पर भी जिनका व्रतभंग नहीं होता। अहो! जैनियों का बड़ा अहिंसाव्रत है जो प्राण जाने का अवसर आने पर भी अपने संकल्प से जीव हिंसा नहीं करते हैं। जिनके असत्य का त्याग, चोरी का त्याग, पर-स्त्री का त्याग तथा परिग्रह के परिणाम पूर्वक समस्त अनीति से रहित हैं; अभक्ष्य नहीं खाना, मर्यादा सहित दिन में देख-शोध कर भोजन करना, इन जिनधर्मियों का धर्म श्रेष्ठ है, बड़ा है।
ये बहुत विनयवन्त होते हैं, तथा प्रिय-हित-मधुर वचन बोलकर सभी को आनंदित करते हैं। इनकी क्षमा बड़ी अतिशयकारी है। अपने इष्टदेव में भक्ति बड़ी अतिशयकारी है। आगम की आज्ञा के जैनी बड़े दृढ़ श्रद्धानी हैं। इनकी बड़ी प्रबल विद्या, महान उज्ज्वल आचरण हैं, वैरभाव रहित होकर सभी जीवों में मैत्री भाव रखते हैं। ऐसा आश्चर्यजनक धर्म इनसे ही पल सकता है। जिनधर्म की ऐसी प्रशंसा जिनके निमित्त से मिथ्याधर्मियों में भी प्रकट होती है उनसे प्रभावना होती है।
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