Book Title: Ratnakarandak Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Mannulal Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार
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तो वह है जिससे कर्म शत्रुओं के उदय को जीतकर शुद्धात्मदशा में लीन हो जाये। धन्य हैं वे जिनके वीतरागता प्रगट हुई है। ऐसे विचारों सहित सम्यग्दृष्टि को तप का मद कैसे होगा?७।
रूप मद :- सम्यग्दृष्टि को शरीर के रूप का गर्व नहीं होता है, क्योंकि वह अपना रूप तो ज्ञानमय जानता देखता है जिसमें सभी पदार्थों का यथार्थ स्वरूप दिखाई देता है। ये चमड़ामय शरीर का रूप मेरा रूप नहीं है । इस देह का रूप क्षण-क्षण में विनाशीक है। एक दिन आहार—पान नहीं करे तो महा विरूप दिखने लगता है । इस देह का रूप समय-समय विनशता रहता है। यदि बुढ़ापा आ जाये तो महासूगला - अभद्र भयकारी दिखने लग जाता है। यदि रोग दारिद्र आ जाये तो किसी के देखने लायक छूने लायक ही नहीं रह जाता है। इस रूप का गर्व कौन ज्ञानी करता है ? यह तो एक ही क्षण में अंधा हो जाये, काना हो जाये, कुबड़ा, लूला, डूंठा, वक्रमुख, वक्रग्रीव, लम्बोदर, विरूप हो जाये । इसका कौन ठिकाना ? यहाँ रूप का गर्व करना बड़ा अनर्थ है।
सुन्दर रूप पाकर शील को मलिन नहीं करो। दरिद्री, दुखी, रोगी, अंगहीन, कूरूप, मलिन देखकर उनका तिरस्कार नहीं करो, ग्लानि नहीं करो, दया ही करो । संसार में महा कुरूप मनुष्य तिर्यंचों का महाअभद्र, भयंकर, सूगला रूप अनेकोंबार पाया है। इसलिये रूप का गर्व नहीं करो । ८ ।
ये आठों मद सम्यग्दर्शन का नाश करनेवाले हैं, इनका संसर्ग स्वप्न में भी जैसे नहीं हो वैसे निरन्तर प्रवर्तन करना योग्य है।
अब जो पुरुष मदोन्मत्त होकर अन्य धर्मात्माजनों का तिरस्कार करते हैं उनके दोषों की उत्पत्ति दिखानेवाला श्लोक कहते हैं
स्मयेन योऽन्यानत्येति धर्मस्थानगर्विताशयः ।
सोऽत्येति धर्ममात्मीयं न धर्मो धार्मिकै बिना ।। २६ ।।
अर्थ :- जो कोई पुरुष गर्व करके धर्म के धारक अन्य धर्मात्मा पुरुषों का तिरस्कार करता है वह अपने धर्म का ही तिरस्कार करता है, क्योंकि धर्मात्मा पुरुषों के बिना धर्म नहीं पाया जाता है। इसलिये जो ज्ञान, पूजा, धन, तप, ऐश्वर्य, रूप आदि का मद करके धर्मात्माओं का तिरस्कार करता है वह अपने ही धर्म का तिरस्कार करता है, क्योंकि धर्म तो किसी पुरुष के आधार से ही रहता है, बिना पुरुष के धर्म तो रहता नहीं है।
भावार्थ :- संसार में धन, ऐश्वर्य, आज्ञा - आदेश का बड़ा मद होता है, जो मद से गर्वीला हो जाता है वह देव-गुरु-धर्म की विनय भी भूल जाता है। गर्विष्ट व्यक्ति ऐसा विचार करता है
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ये मंदिर क्या वस्तु है ? मैं दूसरा नया बनवा दूँगा, ये भी तो हमारा ही बनाया है। ये जो तपस्वी त्यागी हैं, वे भी हमारे ही आधीन भोजन-वस्त्र पाकर जीवित रहते हैं; ये धर्म भी धन खर्च करने से ही होता है, धन खर्च करने से ही भगवान की पूजन प्रभावना होती है इस प्रकार अवज्ञा करता है, अनेक पापाचरण करता हुआ भी कोई अभिमान के वश होकर दानपूजा - प्रभावना में पांच रूपैया लगाकर अपने को धन्य व धर्मात्मा मानता है।
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