Book Title: Ratnakarandak Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Mannulal Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
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[श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार
आरम्भी हिंसा का त्याग करने में गृहस्थ समर्थ नहीं है। वह तो आरम्भ में यत्नाचार सहित प्रवर्तता हुआ केवल दया धर्म को नहीं भूलता है। आरम्भ किये बिना गृहस्थी का निर्वाह नहीं हो सकता है । कितने ही प्रकार का आरम्भ तो नित्य ही करना पडता है-चूल्हा जलाना १, चक्की पीसना २, ओखली में कूटना ३, बुहारी से झाड़ना ४, पानी भरना ५, धन कमाना ६, ये छह पाप के कर्म तो नित्य ही होते हैं।
कितने ही अनेक प्रकार के अन्य आरम्भ दूसरे कारणों से भी हमेशा करना पड़ते हैं; जैसे अपने पुत्र-पुत्री का विवाह करना; मकान बनाना, लीपना, धोना, झाड़ना, रात्रि गमन करना, धातु-पाषाण-काष्ठ आदि सामान बनवाना; शैय्या-आसन बिछाना-उठाना, पांव पसारनासमेटना; समाज को जिमनवार कराना, दिपक जलाना; गाड़ी, रथ, हाथी, घोड़ा, उँट, बैल इत्यादि पर बैठकर चलना; गाय-भैस रखना इत्यादि सब पाप के ही कार्य है; इनमें त्रस जीवों का घात होता ही है। जिन मंदिर बनवाना, उसमें दान देना, पूजन करना इनमें भी आरम्भ होता है।
तब त्रस हिंसा का त्याग कैसे होता है? इसके उत्तर में कहते हैं - अपना परिणाम तो जीव मारने का है नहीं, जीव मारने के लिये आरम्भ करता नहीं है, ऐसा राग भाव भी नहीं है कि इस कार्य के करने से कोई जीव मर जाये तो अच्छा है। वह तो जीव विराधना से भयभीत होकर गृहस्थी चलाने के लिये आरम्भ करता है, जीव मारने के लिये नहीं करता है। अपने परिणामों में तो उठाते-धरते हुए, उठते-बैठते हुए, लेते-देते हुए जीवों की रक्षा करने ही का संकल्प करता रहता है, मारने का संकल्प नहीं करता है; उसे पाप बंध कैसे होगा ? जीव अपने-अपने आयुकर्म के आधीन स्वयं ही उत्पन्न होते और मरते है, इसके हाथ में कुछ नहीं है। यह तो जितना आरम्भ करता है, वह सब यत्नाचार पूर्वक दयाभाव रुप होकर करता है। भगवान् के परमागम में हिंसा होते हुए भी यत्नाचारी को बंध होना नहीं कहा है।
समस्त लोक जीवों से भरा है। हिंसा-अहिंसा अपने उपयोग बिना मात्र जीवों के मरने जीने के आधार पर नहीं कही जाती है। अपने परिणामों के आधीन हिंसा और अहिंसा है। सिद्धान्त ग्रन्थ में इस प्रकार कहा है - यदि कोई मुनिराज चार हाथ प्रमाण आगे की जमीन को सोधते-देखते हुए गमन कर रहे हों तथा जब पैर को उठाकर रख रहे हों, उसी समय कोई जीव उछलकर पैर के नीचे आकर गिर पड़े और मर जाये, तो मुनिराज को कुछ भी पाप बंध नहीं होता हैं, क्योकिं साधु के चित्त में ईया समिति को पालन करने का भाव था, इसलिये पाप बंध नहीं होता है।
वे मुनिराज तो प्रासुक आहार जानकर देखकर सोधकर लेते है, कोई अति सूक्ष्म जीव आकर गिर पड़े तो कौन जानता है ? यह तो केवलज्ञानी भगवान ही जानते है। आप स्वयं यदि प्रमादी होकर यत्न से सोधे देखे बिना ही भोजन करता है तो दोषों से लिप्त होता है। इसी प्रकार यदि श्रावक भी प्रमाद छोड़कर बड़ी सावधानी से प्रवर्तन करता है तो कैसे दोष लगेगा ? वह तो चुल्हे को दिन में सोधकर झाड़कर, ईधन झटकार कर, यत्नपूर्वक अग्नि जलाता है। इसी तरह चक्की
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