Book Title: Ratnakarandak Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Mannulal Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
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[श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार
११०]
पंचाणुव्रतनिधयो निरतिक्रमणाः फलन्ति सुरलोकम् ।
यत्रावधिरष्टगुणा दिव्यशरीरं च लभ्यन्ते ।।३।। अर्थ :- अतिचार रहित ये ऊपर कहे पाँच अणुव्रत निधिरूप वृक्ष में देवलोकरूप फल लगते हैं। जिस देवलोक में अवधिज्ञान तथा अणिमा, महिमा, लघिमा, गरिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व, वशित्व – ये आठ महागुण व धातु-उपधातु रहित दिव्यशरीर प्राप्त होता है। ___ भावार्थ :- अणुव्रतों को निरतिचार धारण करनेवाला मरकर के स्वर्गलोक में महान अणिमा आदि ऋद्धियों का धारी देव ही होता है; अन्य पर्याय नहीं पाता, ऐसा नियम है। स्वर्ग में धातु-उपधातु रहित, रोग-वृद्धत्व रहित, दिव्य शरीर को प्राप्त होकर असंख्यात वर्षो तक सुख सम्पदा में लीन होकर रहता है ___अब जो इन पांच अणुव्रतों को धारणकर इस लोक में प्रसिद्ध हुए है, उनके नाम कहनेवाला श्लोक कहते हैं :
मातङ्गो धनदेवश्च वारिषेणस्ततः परः ।
नीली जयश्च संप्राप्ताः पूजातिशयमुत्तमम् ।।६४।। अर्थ :- अहिंसा अणुव्रत में मातंग चांडाल, सत्य अणुव्रत में धनदेव, अचौर्य अणुव्रत में वारिषेण, ब्रह्मचर्यव्रत में नीली तथा परिग्रह परिमाणव्रत में जयकुमार व्रतों के माहात्म्य से उत्तम कीर्तिरूप अतिशय को प्राप्त होकर उसी भव में देवों द्वारा पूज्य हुए हैं। यद्यपि इन व्रतों के प्रभाव से अनेक भव्यजीव इसलोक में महिमा पाकर देवलोक को गये हैं तथापि आगम में इनकी ही कथा प्रसिद्ध है।
अब जो पांच पापों के प्रभाव से इस लोक में घोर क्लेश प्राप्तकर दुर्गति में गये, उनके नाम कहनेवाला श्लोक कहते हैं :
धनश्रीसत्यघोषौ च तापसी रक्षकावपि ।
उपाख्येयास्तथाश्मश्रुनवनीतो यथाक्रमम् ।।६५।। अर्थ :- हिंसा से धनश्री, असत्य से सत्यघोष , चोरी से तापसी, कुशील से कोतवाल, परिग्रह से श्मश्रुनवनीत-ये इसलोक में राजा द्वारा तीव्र दण्ड पाकर दुर्गति को प्राप्त हुये हैं। श्लोक में ये नाम क्रम से जानकर समझ लेना। अब आठ मूलगुणों को कहनेवाला श्लोक कहते हैं :
मद्यमांसमधुत्यागैः सहाणुव्रतपञ्चकम् ।
अष्टौ मूलगुणानाहुर्गृहिणां श्रमणोत्तमाः।।६६ ।। अर्थ :- श्रमणोत्तम अर्थात् जो गणधरदेव तथा श्रुतकेवली हैं वे गृहस्थ के मद्य, मांस, मधु के त्याग सहित पाँच अणुव्रतों को अष्ट मूलगुण कहते हैं।
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