Book Title: Ratnakarandak Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Mannulal Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates तृतिय - सम्यग्दर्शन अधिकार ]
४. कहीं अनेक पुरुषों ने मिलकर एक जीव की हिंसा की वहां उस हिंसा को करने में जो तीव्र कषायवाला था उसे तीव्र फल प्राप्त होता है, तथा जो मध्यम कषायवाला था उसे मध्यम फल प्राप्त होता है।
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किसी पुरुष से हिंसा तो बाद में समय पाकर होगी, किन्तु हिंसा करने के परिणाम पहले कर लिये, जिससे हिंसा का फल ( कर्मबंध ) हिंसा करने के पहले ही उदय में आकर रस देने लगता है।
किसी को हिंसा करते समय ही हिंसा का फल मिलने लगता है। जैसे—कोई पुरुष किसी दूसरे को मारने लगा, उसी समय में ही वही पुरुष दूसरे पुरुष द्वारा किये गये स्वयं मार दिया जाता है।
प्रहार
किसी को पहिले की गई हिंसा का फल बहुत समय के बाद में मिलता है । जैसे- किसी ने दूसरे जीव को मारने का उपाय तो किया किन्तु उपाय बना नहीं; उसके कुछ समय बाद दूसरे को इसके द्वारा मारने को किये गये उपाय का पता लग गया तो उसने इसी का घात कर दिया।
कहीं हिंसा तो एक जीव करता है, किन्तु उस हिंसा का फल अनेक जीव भोगते हैं। जैसे-चोर तथा हत्यारे को सूली पर चढ़ाकर मारता तो एक अकेला चाण्डाल है, किन्तु देखनेवाले, अनेक तमाशगीर उसकी अनुमोदना करके पापबंध करके फल भोगते हैं। 1
कहीं हिंसा करते तो अनेक जीव हैं, किन्तु उस हिंसा का फल एक जीव भोगता है। I जैसे -युद्ध में हिंसा करनेवाले तो अनेक योद्धा होते हैं, किन्तु उस युद्ध में हुई हिंसा का फल एक अकेला राजा ही भोगता है ।
१०. किसी को उसके द्वारा की हुई हिंसा तो हिंसा ही का फल देती है, तथा किसी को उसके द्वारा की हुई हिंसा उसे ही अहिंसा का फल देती है । जैसे- कोई पुरुष किसी जीव की रक्षा करने का प्रयत्न कर रहा था, किन्तु यत्न करते-करते भी यह जीव मर गया; तो इसे रक्षा करने के अभिप्राय से अहिंसा का ही फल मिलेगा।
११. एक जीव का परिणाम तो दूसरे जीव को मारने का था या विपत्ति में डालने का था; किन्तु दूसरे जीव के पुण्य का उदय होने से उस पर न तो कोई आपत्ति ही आई, और न ही उसका मरण हुआ; किन्तु अनेक प्रकार का लाभ ही हुआ । यहाँ पर मारने का अभिप्राय रखनेवाले जीव को तो पाप ही का बंध होगा ।
१२. एक जीव का परिणाम दूसरे जीव को दुःख देने या मारने का नहीं था, सुख देने व रक्षा करने ही का था; किन्तु दूसरे जीव को दुःख हो गया या वह मर गया, तो इस जीव को सुख देने का परिणाम होने से पुण्य बंध ही होगा।
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