Book Title: Ratnakarandak Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Mannulal Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates प्रथम सम्यग्दर्शन अधिकार
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गृहस्थो मोक्षमार्गस्थो निर्मोहो नैव मोहवान् । ___ अनगारो गृही श्रेयान् निर्मोही मोहिनो मुनेः ।।३३।। अर्थ :- जिसे दर्शनमोह नहीं ऐसा गृहस्थ मोक्षमार्ग में स्थित है; तथा मोही अनगार अर्थात् मोह सहित गृहरहित मुनि मोक्षमार्गी नहीं है। इसी कारण से मोहवान मुनि से निर्मोही-दर्शनमोह रहित गृहस्थ श्रेयान् अर्थात् उत्कृष्ट है।
भावार्थ :- जिसके मोह अर्थात् मिथ्यात्व नहीं है ऐसा अव्रत-सम्यग्दृष्टि भी मोक्षमार्गी है; वह सात-आठ भव देव-मनुष्यों के ग्रहण करके नियम से मोक्ष ही जायेगा। जिसके मिथ्यात्व है, वह मुनि के व्रत धारण करके साधु भी हो गया हो तो भी मरण करके भवनत्रिक आदि में उत्पन्न होकर संसार में ही परिभ्रमण करेगा। दर्शनपाहुड़ में श्रीकुन्दकुन्द स्वामी ने भी यही कहा है :
दंसण भट्टा भट्टा दंसण भट्टस्स णत्थि णिव्वाणं । सिझंति चरिय भट्टा दंसण भट्टा ण सिझंति ।।३।। सम्मत्त रयण भट्टा जाणंता बहु विहाइं सत्थाई।। आराहणा विरहिया भमंति तत्थेव तत्थेव ।।४।। सम्मत विरहियाणं सुतु वि उग्गं तवं चरंताणं । ण लहंति बोहिलाहं अवि वास सहस्स कोडीहिं ।।५।। जे दंसणेसु भट्टा णाणे भट्टा चरित्त भट्टा य । एदे भट्ट वि भट्टा सेसंपि जणं विणासंति ।।८।। जह मूलम्मि विणढे दुमस्स परिवार णत्थि परिवड्डी । तह जिणं दंसण भट्टा मूल विणट्ठा ण सिझंति ।।१०।। जे दंसणेसु भट्टा पाए पाडंति दंसण धराणं । ते होंति लल्ल मूआ बोही पुण दुल्लहा तेसिं ।।१२।। जे वि पडंति य तेसिं जाणंता लज्जा गारव भयेण । तेसिं पि णत्थि बोही पावं अणु मोय माणाणं ।।१३।। जिण वयण मोसहमिणं विसय सुह विरेयणं अमिदभूदं । जर मरण वाहि हरणं खय करणं सव्व दुक्खाणं ।।१७।। एगं जिणस्स रूवं विदियं उक्किट्ठ सावयाणं तु । अवरट्ठियाण तइयं चउत्थपुण लिंग दंसणं णत्थि ।।१८।। जंसक्कइ तं कीरइ जं च ण सक्कइ तं च सद्दहणं ।। केवलि जिणेहिं भणियं सद्दहमाणस्स सम्मत्तं ।।२२।।
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