Book Title: Ratnakarandak Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Mannulal Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार
सम्यग्दर्शन से रहित पुरुष के अणुव्रत और महाव्रत का नाम तक भी नहीं होता है। यह सम्यग्दर्शन यदि अणुव्रत- युक्त हो तो स्वर्ग का कारण है और यदि महाव्रत- युक्त हो तो मोक्ष का कारण है। - चारित्रसार
सम्यग्दर्शनरूप पवित्र भूमि में गिरा हुआ दुःखरूप बीज कदाचित् भी अंकुरित नहीं होता, और बिना बोया गया भी सुखरूप बीज सदा ही अंकुरित होता है । अमितगतिश्रावकाचार
सम्यक्त्व के समान तीन लोकों में इस जीव का कोई बन्धु नहीं है और मिध्यात्व के समान शत्रु नहीं है। पशु होकर भी यदि सम्यक्त्व है तो वह मनुष्य ही है, और मनुष्य होकर यदि मिथ्यात्व से युक्त है तो उसे पशु कहना चाहिये । जो पुरुष एक मुहूर्त मात्र भी सम्यक्त्व को प्राप्त करके फिर उसे छोड़ देते हैं, उन्हें बहुत काल, संसार में परिभ्रमण के बाद भी सम्यग्दर्शन मुक्ति में पहुँचा देता है। धर्मसंग्रह श्रावकाचार
सम्यग्दर्शन के बिना दान देने व व्रत पालन करने आदि से न तो पुण्य ही होता है और न मोक्ष ही प्राप्त होता है, ऐसा श्री जिनेन्द्रदेव ने कहा है । प्रश्नोत्तर श्रावकाचार
जो
मनुष्य गुणों से युक्त सम्यक्त्व को पालता है वह तीनलोक की लक्ष्मी को प्राप्त करता है ।
गुणभूषण श्रावकाचार
इस संसार में सम्यग्दर्शन ही दुर्लभ है। सम्यग्दर्शन ही ज्ञान व चरित्र का बीज है । सम्यग्दर्शन ही उत्तम पद है, उत्कृष्ट ज्योति है, श्रेष्ठ तप है, इष्ट पदार्थों की सिद्धि है. परम् मनोरथ है अतीन्द्रिय सुख है, कल्याणों की परम्परा है। सम्यग्दर्शन के बिना सर्व ज्ञान मिथ्याज्ञान, चारित्र मिथ्याचारित्र और तप बालतप कहलाता है। शुद्ध जीव का साक्षात् अनुभव होना, वही यथार्थ सम्यग्दर्शन है। लाटी संहिता मोक्षरूपी वृक्ष का बीज सम्यग्दर्शन है, और संसाररूपी वृक्ष का बीज मिथ्यादर्शन है, ऐसा जिनदेवों ने कहा है । पद्मनंदि पंचविंशति
जैसे भवन का मूल आधार नींव है उसी प्रकार सर्व व्रतों का मूल आधार सम्यक्त्व है।
पूज्यपाद श्रावकाचार
जिन गुरुओं के निर्मल वचनरूपी किरणों से, जिसको सूर्य-चन्द्रादि भी नाश नहीं कर सके, ऐसा प्रबल मोहरूपी अंधकार बात की बात में नष्ट हो जाता है ऐसे वे उत्तम गुरु सदा इस लोक में जयवंत हों, मैं ऐसे गुरुओं की वंदना करता हूँ । पद्मनंदि पंचविंशति
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जो पुरुष स्यादवाद में प्रवीणता और निश्चल संयम के द्वारा आत्मा में उपयोग लगाता हुआ उसे निरंतर भाता है वही पुरुष ज्ञाननय और क्रियानय की पारस्परिक तीव्र मैत्री का पात्र होकर इस निज भावमयी भूमिका को पाता है । - समयसार आत्मख्याति जिन पुरुष के आशारूपी पिशाचिनी नष्ट हो गई है उसका शास्त्र अध्ययन, तत्त्वों का निश्चय ओर निर्भयता आदि सत्यार्थ है ।
आचार्य अमृतचंद देव चारित्रपालन, विवेक,
इस भव तरु का मूल इक, जानो मिथ्याभाव। ताको कर निर्मूल अब करिये मोक्ष उपाव ।।
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पंडित टोडरमलजी
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