Book Title: Ratnakarandak Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Mannulal Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates प्रथम सम्यग्दर्शन अधिकार
[५३ अब इस देह के आधार से पराधीन बल से यदि मैं तपस्या करके कर्मों का नाश करूँ तो बल पाना सफल है। इस बल के प्राप्त होने से मैं व्रत, उपवास, शील, संयम, स्वाध्याय, कायोत्सर्ग करूँ तथा कर्म का प्रबल उदय होने पर भी आये हुए उपसर्ग परीषह आदि से विचलित नहीं होऊँ; रोग-दारिद्र आदि कर्मों के प्रहार से कायर नहीं होऊँ, दीनता को नहीं प्राप्त होऊँ तो मेरा बल पाना सफल है। ___ मैं दीन, दरिद्री, असमर्थों के दुर्वचन सुनकर भी यदि क्षमा धारण करूँगा तो मेरी आत्मा की विशुद्धता के प्रभाव से दुर्जेय कर्मों को जीतकर क्रम-क्रम से अनन्तवीर्य को प्राप्त करके अविनाशी पद प्राप्त कर लूंगा; और यदि मैं बलवान होकर निर्बलों का घात करूँ, असमर्थों का धन, धरती, स्त्रियों का हरण करूँ, अपमान-तिरस्कार करूँ, तो सिंह-व्याघ्र-सर्प आदि दुष्ट तिर्यंचों के समान दूसरे जीवों की हिंसा करने के लिये ही मेरा बल पाना रहा; जिसका फल दीर्घकाल तक नरकों के दुःख, तिर्यंचों के दुःख भोग करके अनंतकाल तक निगोद में परिभ्रमण करना होगा। इस प्रकार बल के मद के समान मेरी आत्मा का घातक अन्य कोई नहीं है।५।
ऋद्धिमद :- ज्ञानी को ऋद्धि अर्थात् धनसंपत्ति पाने का गर्व नहीं होता है। सम्यग्दृष्टि तो धन आदि के परिग्रह को महाभार मानता है। वह विचारता है कि - ऐसा दिन कब आयेगा जब मैं समस्त परिग्रह के भार को छोड़कर अपने आत्मीक धन की सम्हाल करूँगा? यह धन परिग्रह का भार महाबन्धन है; राग, द्वेष, भय. संताप. शोक क्लेश. बैर. हानि. महाआरंभ का कारण है; मद उत्पन्न करनेवाला है, दुखरूप दुर्गति का बीज है।
परन्तु करें क्याः जैसे कफ में पड़ी मक्खी अपने को निकालने में समर्थ नहीं है, कीचड़ में फंसा वृद्ध अशक्त बैल निकलने में समर्थ नहीं है, दलदल में पड़ा हाथी अपने को निकालने में समर्थ नहीं है; उसी प्रकार मैं भी इस धन-कटुम्ब आदि के फंदे में से निकलना चाहता है, किन्तु आसक्ति, रागादि का प्रबल उदय, निर्वाह होने की कठिनता दिखाई देने से हृदय कांपता है। ऐसे अपमान, भयादि करानेवाले परिग्रह के बंधन से बाहर निकलने का इच्छुक सम्यग्दृष्टि पराधीन, विनाशीक, दुखरूप संपत्ति का गर्व नहीं करता है। इसका संयोग होने से बड़ी शर्म लगती है कि – मैं अपनी, स्वाधीन, अविनाशी, आत्मीक लक्ष्मी को छोड़कर ज्ञानी होकर भी इस धूल समान लक्ष्मी को नहीं छोड़ रहा हूँ, इसके समान मेरी और क्या निर्लज्जता होगी, और क्या हीनता होगी? ६।
तपमद :- सम्यग्दृष्टि को तप का मद नहीं होता है। मद तो तप का नाश करने वाला है। तप के प्रभाव से अष्ट कर्म रूपी शत्रुओं को जीतकर जो परमात्मपने को प्राप्त हुए हैं वे धन्य हैं। मैं संसारी आसक्त होकर इंद्रियों को विषयों में लगने से रोकने में असमर्थ हूँ, काम भाव को जीता नहीं है, निद्रा-आलस्य-प्रमाद को भी जीता नहीं है; इच्छाओं को रोकने में समर्थ नहीं हूँ, शरीर में लालसा घटी नहीं है, जीवित रहने की इच्छा मिटी नहीं है, मरने का भय दूर हुआ नहीं है, स्तवन-निन्दा में, लाभ-अलाभ में समभाव हुआ नहीं है तब तक हमारा तप कैसा, किस काम का ? तप
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