Book Title: Ratnakarandak Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Mannulal Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates प्रथम सम्यग्दर्शन अधिकार] सर्वघाति स्पर्द्धक उनके उदय का अभाव उसे ही क्षय कहा; और जो सर्वघाति स्पर्द्धक उदय अवस्था को प्राप्त तो नहीं हुए परन्तु जिनकी सत्ता विद्यमान है उसे कहा उपशम-ऐसे संयोग की प्राप्ति जिस समय होती है, उसे क्षयोपशम लब्धि जानना।
विशुद्धि लब्धि : पहले जो क्षयोपशम लब्धि हुई है उसके प्रभाव से उत्पन्न होनेवाले, जीव को सातावेदनीय आदि शुभ प्रकृतियों के बंध को कारण धर्मानुरागरूप शुभ भावों की प्राप्ति होना वह विशुद्धि लब्धि है। यह ठीक ही है क्योंकि जब अशुभ कर्मों का रस देना कम हो जाता है तब जीव के संक्लेश परिणाम भी घट कर थोड़े रह जाते हैं, उस अवस्था में विशुद्ध परिणामों की वृद्धि होना उचित ही है। इस प्रकार दूसरी विशुद्धि लब्धि कही।
देशना लब्धि : देशना लब्धि का स्वरूप इस प्रकार जानना - छह द्रव्य तथा नों पदार्थों का उपदेश देनेवाले आचार्य आदि का मिलना, उनसे उपदेश की प्राप्ति होना तथा उस उपदेशित पदार्थों के स्वरूप को धारणा में ले लेना वह देशना लब्धि है। नरक आदि में जहाँ पर उपदेश देनेवाले नहीं है वहाँ पर पूर्व जन्म में जो तत्त्वों का अर्थ धारणा में लिया था उसके संस्कार के बल से सम्यग्दर्शन हो जाता है।
प्रायोग्य लब्धि : अब चौथी प्रायोग्य लब्धि का स्वरूप जैसा आगम में कहा है, वह कहते हैं-ऊपर कही तीन लब्धियों सहित जीव जब समय-समय विशुद्धता को बढ़ाते हुए, आयुकर्म के सिवाय सात कर्मों की स्थिति अंत - कोड़ाकोड़ि सागर शेष रह जाये, तब पूर्व में जो कर्मों की स्थिति बची थी, उसे एक कांडक घात द्वारा छेदे; फिर कांडक से प्राप्त द्रव्य (कर्मों के) को शेष रही स्थिति के बराबर करता है। इस अवस्था में घातिया कर्मों का अनुभाग-रस दारू और लतारूप शेष बचता है, शैल-अस्थि रूप नहीं रहता है; और अघातिया कर्मों का अनुभाग निंब-कांजीर रूप शेष बचता है, विष-हालाहलरूप नहीं रहता है। पहले जो अनुभाग था उसमें अनन्त का भाग देने पर बहु भाग प्रमाण अनुभाग को नष्ट करके बाकी बचा अनुभाग (अनंतवाँ भाग) शेष रह जाता है, ऐसा कार्य करने की योग्यता की प्राप्ति वह प्रायोग्य लब्धि है। यह भव्य व अभव्य दोनों के हो सकती है। ___ संक्लेश परिणामी संज्ञी पंचेंद्रिय पर्याप्त के जैसा संभव हो सके वैसा उत्कृष्ट स्थितिबन्ध वाला, और उत्कृष्ट प्रदेश-स्थिति-अनुभाग की सत्ता वाला जीव प्रथमोपशम सम्यक्त्व को ग्रहण नहीं कर सकता है। तथा क्षपकश्रेणी में जो बंध संभव है उतनी परिणामों की विशुद्धि व जघन्य प्रदेश-स्थिति-अनुभाग की सत्ता रह जाने पर भी प्रथमोपशम सम्यक्त्व की प्राप्ति नहीं होती है।
प्रथमोपशम सम्यक्त्व के सम्मुख हुआ मिथ्यादृष्टि जीव विशुद्धता की वृद्धि कर आगे बढ़ता हुआ प्रायोग्य लब्धि के प्रथम समय से लगाकर पूर्व स्थिति के संख्यातवें भाग मात्र (बराबर) अंत: कोड़ाकोड़ि सागर प्रमाण (बराबर) आयु कर्म के सिवाय सात कर्मों की स्थितिबंध करता है। उस अंतः कोड़ाकोड़ि सागर (बराबर) स्थितिबंध से पल्य के संख्यातवें भाग मात्र घटता (बराबर कम) स्थितिबंध अंतर्मुहूर्त तक समानता लिये (एक सी गति से) करता है।
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