Book Title: Ratnakarandak Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Mannulal Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
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[श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार
६०]
फिर अंतर्मुहूर्त तक पल्य के संख्यातवें भाग मात्र घटता ( बराबर कम) स्थितिबंध समानता लिये करता है। इसी प्रकार क्रम-क्रम से संख्यात स्थितिबंध अपसरण करके पृथक्त्व (७-८) सौ सागर घट जाने पर पहला प्रकृतिबंध अपसरणस्थान होता है। इसी क्रम से पिछले वाले बंध से भी पृथक्त्व सौ सागर घट जाने पर दूसरा प्रकृतिबंध अपसरणस्थान होता है। इस तरह इसी क्रम से इतनी ही स्थितिबंध घटते जाने पर एक-एक प्रकृतिबंध अपसरणस्थान होता जाता है। इस प्रकार प्रकृति बंध अपसरण के चौतीस स्थान होते हैं। यहाँ पृथक्त्व का अर्थ ७-८ है, अतः यहाँ पृथक्त्व सौ सागर कहने से ७ सौ व ८ सौ सागर जानना।
अब यहाँ किन-किन प्रकृतियों को बंधना (व्युच्छेद) रुक जाता हैं, यहाँ से लगाकर प्रथमोपशम सम्यक्त्व के होने तक बंध नहीं होता – ऐसे चौंतीस बंधापसरण हैं, उन चौंतीस बंधापसरणों का वर्णन करने से कथन बहुत बढ़ जायेगा। जिन्हे विशेष जानने की इच्छा हो वे श्री लब्धिसारजी ग्रन्थ से जान लें। प्रायोग्यलब्धि के विषय में और भी विशेष उसी ग्रन्थ से जानना।
करणलब्धि : पांचवीं करण लब्धि भव्यों के ही होती है, अभव्यों के नहीं होती है। अधः करण १, अपूर्वकरण २, अनिवृत्तिकरण ३, ऐसे तीन करण है। यहाँ करण का अर्थ कषायों की मंदता से होने वाले विशुद्धिरूप आत्म परिणामों से है। उनमें लघु अंतर्मुहूर्त प्रमाण काल तो अनिवृतिकरण का है; उससे संख्यातगुणा काल अपूर्वकरण का है, और उससे संख्यातगुणा काल अधः प्रवृत्तकरण का है; यह सब काल भी अंतर्मुहूर्त प्रमाण ही है क्योंकि इस अंतर्मुहूर्त के भी असंख्यात भेद हैं।' ___इस अधः प्रवृत्तकरण के काल में अतीत-अनागत-वर्तमान त्रिकालवर्ती अनेक जीवों संबंधी इसी करण के विशुद्धतारूप परिणाम असंख्यात लोक प्रमाण हैं, वे परिणाम अधःप्रवृत्तकरण के जितने समय हैं उतने में समान वृद्धि लिये प्रति समय बढ़ते रहते हैं। इस करण के नीचे के समय के परिणामों की संख्या और विशुद्धता ऊपर के समयवर्ती किसी दूसरे जीव के परिणामों से समानता लिये होती है ( मिलती है) इसीलिये इसका नाम अध: प्रवृत्त करण है। इसके परिणामों की संख्या और विशुद्धता के लिये लौकिक दृष्टांत अलौकिक संदृष्टि गोम्मटसार तथा लब्धिसार में हैं; वहाँ से विशेष जानना। यहाँ इतना बड़ा विस्तार कैसे लिखें, लिखने से ग्रन्थ बहुत बड़ा हो जायेगा।
__ अधःप्रवृत्तकरण के परिणामों के प्रभाव से चार आवश्यक होते हैं – एक-तो प्रति समय अनंतगुणी विशुद्धता की वृद्धि होती है; दूसरा-स्थितिबंध अपसरण होता है; पहले जितनी स्थिति लिये कर्मों का स्थितिबंध होता था उससे घटता-घटता स्थितिबंध करता है; तीसरासातावेदनीय से लगाकर प्रशस्त कर्म प्रकृतियों का प्रतिसमय अनंतगुण बढ़ता हुआ गुड़, खाण्ड, शर्करा, अमृत के समान चार प्रकार का अनुभाग बंध होता है; और चौथा - असातावेदनीय आदि अप्रशस्त कर्म प्रकृतियों का प्रतिसमय अनंतगुणा घटता हुआ निंब, कांजीर के समान दो प्रकार का अनुभाग बंध होता है; विष, हालाहलरूप नहीं होता है।
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