Book Title: Ratnakarandak Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Mannulal Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates प्रथम सम्यग्दर्शन अधिकार] ही नहीं है। उसके मंगलाचरण पर आचार्य समन्तभद्र ने आप्तमीमांसा लिखी जो देवागमस्तोत्र के नाम से भी प्रसिद्ध है। उस पर अष्टशती एवं आचार्य विद्यानन्दि ने अष्टसहस्त्री टीका लिखी। अकलंकदेव ने राजवार्तिक रचा है। आचार्य विद्यानन्द स्वामी ने अठारह हजार श्लोकों में श्लोकवार्तिक लिखी हैं तथा आप्तपरीक्षा भी लिखी है।
उनके निर्बाध वचनों के प्रभाव को देखकर बडे-बडे वादियों-तर्क करनेवालों के गर्व गल जाते हैं। नाटकत्रय, सारत्रय इत्यादि अनेकांतरूप निर्बाध युक्तियुक्त वचनों को जानकर कैसे ज्ञान का मद करते हो ? किसी प्रकार श्रुतज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से कुछ ज्ञान प्राप्त किया है, तो इसे बड़ी दुर्लभ वस्तु समझकर आत्मा को विषयों से तथा अभिमान आदि कषायों से छुड़ाकर परम समता धारणकर संसार परिभ्रमण के अभाव का प्रयत्न करो। ज्ञान का मद करके आत्मा को अनन्त संसार नहीं बनाओ। इस प्रकार ज्ञान के मद का अभाव करने का उपदेश दिया है।।
पूजामद :- यह दूसरा पूज्यता का मद-ऐश्वर्य का मद सम्यग्दृष्टि नहीं करता है। ये राज्य ऐश्वर्य आत्मा का स्वभाव नहीं है, कर्मों का किया है, विनाशीक है, पराधीन है, दुर्गति का कारण है। मेरा ऐश्वर्य तो अनंत चतुष्टयमय अक्षय-अविनाशी-अखण्ड-सुखमय है, अनंत ज्ञान-दर्शनमय है, अनन्त शक्तिरूप है। यह कर्मकत, महाउपाधिरूप, आत्मा को क्लेशित करके दुर्गति में पहुँचानेवाला, स्वरूप को भुलानेवाला ऐश्वर्य आत्मा का स्वरूप नहीं है। यह कलह का मूल , बैर का कारण , क्षण भंगुर, परमात्म स्वरूप को भुलानेवाला, महादाह को उत्पन्न करनेवाला, दुःखस्वरूप है, अनेक जीवों का घातक है। महाआरंभ महापरिग्रह में अंधा करके नरक में पहुँचानेवाला है। इस ऐश्वर्य से मैं कितने दिन पूज्य रहूँगा ? क्षण भर में नष्ट होने से रंक हो जाऊँगा।
जगत में धन के लोभी तथा अज्ञानी लोग मुझे ऊँचा मानते हैं, सत्कार करते हैं किन्तु उस राज्य, संपदा आदि का मेरा कितने दिनों का स्वामीपना है ? मृत्यु का दिन निकट आ रहा है। मुझ सरीखे अनंतानंत जीव संपदा को अपनी माननेवाले नष्ट हो गये हैं। परमाणु मात्र भी परद्रव्य मेरा नहीं है। एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कैसे हो सकता है ?
इस पर्याय में कर्मकृत पर का संयोगरूप ऐश्वर्य है सो दान, सन्मान, शील, संयम, दूसरे जीवों के उपकार में लगाने से ही प्रशंसा योग्य है। ऐश्वर्य पाकर गर्वरहित, वांछारहित, समतारहित, विनयवंत होना शुभगति का कारण है। मिथ्यादर्शन जनित मिथ्याभाव जीव को अपना स्वरूप भुलाकर ऐश्वर्य में उलझाकर नरक में पहुँचा देता है। ऐसा दृढ़ श्रद्धान करता हुआ सम्यग्दृष्टि पूज्यपने का-ऐश्वर्य का मद नहीं करता है। अन्य जीवों को अशुभ कर्म के उदय के वश निर्धनता से दुखी देखकर अशुभ साम्रगी सहित देखकर अवज्ञा-तिरस्कार नहीं करता है, करुणा ही करता है।। ____ कुलमद :- अब यह सिद्ध करते हैं कि सम्यग्दृष्टि को कुल का मद नहीं होता है। जगत में पिता के वंश को कुल कहते हैं। सम्यग्दृष्टि विचारता है - मेरा आत्मा किसी के द्वारा उत्पन्न नहीं किया गया है। मैं तो ज्ञान स्वरूप आत्मा हूँ, उसका कुल होता ही नहीं है। ज्ञाता द्रष्टा स्वभाव
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