Book Title: Ratnakarandak Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Mannulal Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
View full book text
________________
Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates ४४]
[श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार वही देवमूढ़ता है। राज्य, सुख, संपत्ति आदि तो सातावेदनीय कर्म के उदय से प्राप्त होती है, वह सातावेदनीय कर्म कोई हमें देने में समर्थ नहीं है। लाभ तो लाभांतराय कर्म के क्षयोपशम से होता है। भोग-उपभोग सामग्री की प्राप्ति भोग-उपभोग नाम के अंतराय कर्म के क्षयोपशय से होती है। अपने भावों द्वारा बांधे गये कर्मों को कोई भी देवी-देवता देने में तथा लेने में समर्थ नहीं है।
कुल की वृद्धि के लिये कुलदेवी को पूजते हैं, किन्तु पूजते-पूजते भी किसी का कुल का विध्वंस होते देखा जाता है। लक्ष्मी के लिये लक्ष्मीदेवी को , रुपयों को-मुहरों को पूजते हैं, किन्तु इन्हें पूजते-पूजते भी अनेक दरिद्री होते दिखाई देते हैं। शीतला की पूजा करतेकरते भी संतान का मरण होते देखा जाता है। पितरों को मानते हुए भी रोगादि बढ़ते देखे जाते हैं। व्यन्तर-क्षेत्रपालादि को अपनी सहायता करनेवाला मानते हैं, सो यह मिथ्यात्व के उदय का ही प्रभाव है।
क्षेत्रपाल-पद्मावती पूजन के संबंध में विचार कितने ही कहते हैं - चक्रेश्वरी, पद्मावतीदेवी जो शास्त्र धारण किये हैं, जिनशासन की रक्षक हैं तथा सेवकों की रक्षा करनेवाली हैं। प्रत्येक तीर्थंकर की एक-एक देवी है, एक-एक यक्ष हैं, इनके आराधना करने से पूजन करने से जिनधर्म की रक्षा होती है। ये धर्मात्माओं की भी रक्षा करती है इसलिये इन देवियों की और यक्षों का पूजन-स्तवन करना उचित है। देवियाँ समस्त कार्य को साधनेवाली है, तीर्थंकरों की भक्त हैं, इनके बिना धर्म की रक्षा कौन करेगा? इसी कारण से मंदिरों के भीतर पद्मावती का रूप जिसकी चार भुजा व बत्तीस भुजा और अनेक शस्त्रों सहित बनाकर, उसके मस्तक के ऊपर भगवान पार्श्वनाथ स्वामी का प्रतिबिम्ब और उसके ऊपर अनेक फणों वाला सर्प का रूप बनाते हैं और बहुत अनुराग से पूजते हैं। इस सब का परमागम से अच्छी तरह जानकर निर्णय करना चाहिये। मूर्ख लोगों के कहने में आकर चाहे-जैसी प्रवृत्ति नहीं करनी चाहिये।
प्रथम तो भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी - इन तीन प्रकार के देवों में मिथ्यादृष्टि ही उत्पन्न होते हैं। सम्यग्दृष्टि भवनत्रिक देवों में उत्पन्न ही नहीं होता है, स्त्री पर्याय में भी नहीं जाता है; पद्मावती-चक्रेश्वरी तो भवनवासिनी तथा स्त्री पर्याय में है, क्षेत्रपालादि व्यन्तर हैं। उनमें सम्यग्दृष्टि कैसे उत्पन्न होगा ? उनमें तो नियम से मिथ्यादृष्टि ही उत्पन्न होते है, ऐसा हजारों बार परमागम में कहा है।
यदि इनको जैन धर्म से प्रीति है तो जिनधर्म के धारकों से अपनी पूजा वंदना नहीं चाहेंगे। जो जैनी है और अपने को अव्रती जानता है, वह सम्यग्दृष्टि से अपनी वंदना पूजा कैसे करायेगा? साधर्मियों का उपकार तो वह बिना कहे ही करेगा। ___भगवान का प्रतिबिम्ब तो अपने मस्तक ऊपर रखे है तथा भगवान के भक्तों से अपनी पूजा करावे, ऐसी अविनय कोई धर्मात्मा होकर कैसे करेगा ? वह तो अनेक शस्त्र धारण करके अपनी वीतराग धर्म में प्रवृत्ति को बिगाड़ता है तथा अपनी बलहीनता प्रगट दिखाता है।
जिनशासन के रक्षक एक-एक यक्ष-यक्षिणी ही कैसे कहते हो ? भगवान के शासन के तो सौधर्म इन्द्र से लगाकर असंख्यात देव-देवियाँ सभी सेवक हैं। जिनके हृदय में सच्चे धर्म से प्रीति
Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com