Book Title: Ratnakarandak Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Mannulal Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates प्रथम सम्यग्दर्शन अधिकार ]
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नहीं है। इसलिए ऐसा निश्चित जानो कि बिना श्रद्धान किये भी अनेक देव - देवियों की पूजा आराधना देवमूढ़ता ही है।
जो मंत्र - साधना, विद्या-आराधना, देव-आराधना आदि हैं वे सभी पुण्य-पाप के अनुसार ही फल देते हैं। इसलिए जो सुख के इच्छुक हैं वे दया, क्षमा, संतोष, निर्वांछकता, मंदकषायता, वीतरागता के द्वारा अकेले धर्म का ही आराधन करो, अन्य प्रकार से वांछा करके पाप बंध नहीं करो ।
यदि देवों की संगति करने की ही इच्छा है तो उत्तम सम्यग्दृष्टि सौधर्म इन्द्र, शची इन्द्राणी, लौकान्तिक देवों की संगति करने की भावना करो। अन्य अधम देवों की सेवा करने से क्या सिद्ध होगा ?
क्षेत्रपाल आदि का पूजन निषेध
बहुत से लोग मिथ्याबुद्धि के कारण मंदिरों में क्षेत्रपाल की स्थापना करते हैं और प्रतिदिन उनकी पूजा करते हैं। वे लोग पहिले तो क्षेत्रपाल की पूजा करते हैं और क्षेत्रपाल की पूजा करने के बाद में जिनेन्द्रदेव का पूजन करते हैं। वे ऐसा कहते हैं कि जैसे पहले द्वारपाल का सन्मान करना, उसके पश्चात् राजा का सन्मान करना चाहिये । द्वारपाल बिना राजा से भेंट कौन करावेगा ? वैसे ही क्षेत्रपाल - बिना भगवान से भेंट-मिलाप कौन करा सकता है ?
उन मूर्खों को यह विवेक ही नहीं है कि भगवान तो मोक्ष में हैं। यह मिथ्यादृष्टि अज्ञानी क्षेत्रपाल जो भगवान परमात्मा के स्वरूप को जानता ही नहीं है, उनसे कैसे मिलवा देगा और कैसे विघ्नों का नाश करेगा? वह तो स्वयं के ही विघ्नों का नाश करने में समर्थ नहीं है। इस प्रकार विवेक रहित मिथ्यादृष्टि लोग क्षेत्रपाल का अत्यंत विपरीत रूप बनाकर वीतराग के मंदिर में पहले स्थान पर ही स्थापना करते हैं जिसके हाथ में मनुष्य का कटा हुआ सिर तथा गदा, तलवार है, कुत्ते पर बैठा हुआ है, तेल - गुड़ खाने से क्षेत्रपाल प्रसन्न होते हैं- ऐसा लोगों को बहकाकर क्षेत्रपाल को पुजवाते हैं तथा इनका दर्शन-पूजन करते हैं। सो यह सब मिथ्यादर्शन और कुज्ञान का ही प्रभाव जानना ।
भगवान पार्श्व जिनेन्द्र की प्रतिमा, मस्तक के ऊपर फण बिना बनाते ही नही है । भगवान पार्श्व अरहन्त के समोशरण में मस्तक के ऊपर धरणेन्द्र द्वारा फण बनाना कैसे सम्भव है? धरणेन्द्र ने तो भगवान के तपस्या करते समय मुनि अवस्था में फण मण्डप बनाया था; उसके पश्चात् अर्हन्त अवस्था में फण बनाने का कोई प्रयोजन नहीं है। जब भगवान पार्श्व जिनेन्द्र अर्हन्त बन गये, और इन्द्र की आज्ञा से कुबेर ने समोशरण की रचना की थी तब वहाँ भगवान पार्श्व फण सहित विराजमान नहीं थे। वहाँ चार निकाय के देव, मनुष्य और तिर्यंच धर्म श्रवण - स्तवन - वंदन करते हुये बैठते हैं; इसलिये स्थापित प्रतिमा में अर्हन्त के प्रतिबिम्बों के फण कैसे सम्भव होगा ? वीतराग मुद्रा तो इस प्रकार नहीं होती।
काल के प्रभाव से धरणेन्द्र की पूजा - प्रभावना दिखलाने को लोग विपरीत कल्पना करने लगे सो उन्हें कौन दूर कर सकता है ? जैसे पाषाण की भगवान की प्रतिमा में अंगों की सुन्दरता
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