Book Title: Ratnakarandak Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Mannulal Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
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[श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार
४२]
मुनिराज तो नीच जाति के मनुष्य का स्पर्श हो जाते पर दण्ड स्नान करते हैं, उस दिन उपवास करते हैं। यदि बिना जाने ही किसी नीच कुलवाले के घर में प्रवेश हो जाये तो भोजन का अंतराय मानते हैं। मदिरा. मांस. शरीर से चार अंगल की दरी पर रक्त. पीव. पंचेन्द्रिय जीव का मृतक कलेवर भोजन करते समय दिख जाये तो अंतराय मानते हैं; तब जिनधर्मी गृहस्थ हाड़, कौंड़ी, चाम, केश, ऊन इनका स्पर्श हो जाने पर भोजन कैसे नहीं छोड़ें ? इसीलिये गृहस्थ तो हाथ-पैर धोकर, शुद्ध स्थान में शुद्ध भोजन करते हैं। नीच अधम जाति का छुआ हुआ भोजन नहीं करते हैं।
जिनेन्द्र का पूजन करने के लिये स्नान करना उचित ही है; क्योंकि स्नान करके देव की पूजन-स्पर्श करना यह बड़ी विनय है। यद्यपि स्नान से शुद्धता नहीं होती तो भी देव के उपकरणों को स्नान करके ही स्पर्श करना चाहिये, धोया हुआ द्रव्य ही चढ़ाना चाहिये वह देव विनय ही है; विनय है वही आराधना है। जब जिनेन्द्र के मंदिर के उपकरण की भी विनय करते हैं तो जिनेन्द्र के आगम की, वाणी की, पूजन के द्रव्य को भी स्नान करके छूना, हाथ धोकर स्पर्श करना, मंदिर में हाथ-पैर धोकर प्रवेश करना वह भी विनय ही है। यद्यपि पाप मल की शुद्धता करना मुख्य है तो भी भगवान जिनेन्द्र के आगम में आठ प्रकार की लौकिक शुद्धियां कहीं है। लौकिक शौच के बिना परमार्थ धर्म से भ्रष्ट हो जाता है।
मुनिराज का शरीर तो रत्नत्रय के प्रभाव से महापवित्र है तो भी बाह्यशुद्धि के लिये कमण्डलु रखते हैं, हाथ-पैर धोकर स्वाध्याय करते हैं, थोड़ा गर्म जल से पैर धुलवाकर भोजन करते हैं, व्यवहार-आचार को नहीं छोड़ते हैं। यह भगवान जिनेन्द्र का धर्म अनेकान्तरूप है। निश्चयव्यवहार का विरोध रहित ही धर्म है, सर्वथा एकान्तरूप जिनेन्द्र का धर्म नहीं है।
जो लौकिक शुद्धि रहित होगा तो धर्म की निन्दा, कुल की निन्दा ही करावेगा, तब अपना आत्मा मलिन ही होगा। मैथुन सेवन किया हो, मुर्दा जलाकर आया हो, क्षौरकर्म कराकर आया हो, चांडाल-म्लेच्छादि का स्पर्श हो गया हो, पंचेन्द्रिय मृतक का स्पर्श हो गया हो, रजस्वला आदि अशुचि स्पर्श हो गया हो, इत्यादि और भी अनेक कारण हों तब अवश्य ही स्नान करना चाहिये। अन्य कारणों में जहां मल, मूत्र, हाड़, चामादि का जिस अंग से स्पर्श हुआ हो उसे शीघ्र ही धोना उचित है।
लोक में आठ प्रकार की शद्धि अनादि से चली आ रही है। अत: आगम की आज्ञा मानने में ही हित है। जगत में प्रकट देखते हैं कि कान के मैल से आंख के मैल को, आंख के मैल से नाक के मैल को, नाक के मैल से कफ-लार आदि मुख के मैल, उससे मूत्र को, उससे विष्टा को अधिक-अधिक अपवित्र मानते हैं। यदि सभी प्रकार के मैल-मल को समान माना जायेगा तो समस्त आचार उपद्रवित हो जायेगा, विपरीत हो जायेगा। यद्यपि द्रव्यार्थिक नय से समस्त ही मल की एक पुद्गल जाति है तथापि उनमें परस्पर बहुत भेद है। यद्यपि हाड़, मांस , रक्त, मल, मूत्रादि समस्त
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