Book Title: Ratnakarandak Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Mannulal Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates [श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार
जो अनीति का धन कभी नहीं चाहते है, अन्याय के विषय भोग स्वप्न में भी ग्रहण नहीं करते हैं, यदि हमारे निमित्त से जिनधर्म की निन्दा हो गई तो हमारा जन्म दोनों लोकों को नष्ट करने वाला हुआ। अतः सम्यग्दृष्टि जिस प्रकार अपना, कुल का, धर्म का, साधर्मियों का तथा दान-शील-तप- व्रत का अपवाद - निंदा नहीं हो उस प्रकार से प्रवर्तन करता है। धर्म को दूषण लगने का बहुत भय रहता है। धर्म की प्रशंसा, उच्चता, उज्ज्वलता ही प्रगट हो ऐसा आचरण करता है, उसी के प्रभावना नाम का आठवाँ अंग है।
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ऐसे सम्यक्त्व के आठ अंगों का समूह ही सम्यग्दर्शन है। जैसे अंगों से अंगी भिन्न नहीं है, अंगों के समूह की एकता सो ही अंगी है, वैसे ही निःशंकितादि गुणों का समूह वही सम्यग्दर्शन है। इन आठ अंगों के प्रतिपक्षी शंका, कांक्षा, ग्लानि, मूढ़ता, अनुपगूहन, अस्थितिकरण, अवात्सल्य, अप्रभावना आदि द्वारा वह धर्म को दूषित नहीं होने देता है।
अब निःशंकितादि अंगों के पालन में जो आगम में प्रसिद्ध हुए हैं उनमे नाम दो श्लोकों द्वारा कहते हैं :
तावदञ्जन चौराऽङ्गे ततोऽनन्तमती स्मृता । उद्दायनस्तृतीयेऽपि तुरीये रेवती मता ।।१९।। ततो जिनेन्द्रभक्तोऽन्यो वारिषेणस्ततः परः । विष्णुश्च वज्रनामा च शेषयोर्लक्ष्यतां गतौ ।। २० ।।
अर्थ :- प्रथम अंग में राजपुत्र अंजनचोर, द्वितीय अंग में अनन्तमती नाम की सेठ की पुत्री, तृतीय अंग उद्दायन राजा, चतुर्थ अंग में रेवती रानी, पंचम अंग में जिनेन्द्रभक्त सेठ, छठा अंग में राजपुत्र वारिषेण मुनि, सप्तम अंग में राजपुत्र विष्णुकुमार मुनि, और अष्टम अंग में राजपुत्र वज्रकुमार मुनि-ये आठ नाम आगम में सम्यक्त्व के अंगों में प्रसिद्ध होनेवालों के क्रम से दृष्टांतरूप में आये हैं । इनकी विस्तृत कथायें प्रथमानुयोग के शास्त्रों में प्रसिद्ध हैं, वहां से जान लेना ।
अब अंगहीन सम्यक्त्व में संसार की परिपाटी छेदने की असमर्थता दिखानेवाला श्लोक कहते हैं
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नाङ्गहीनं मलं छेत्तुं दर्शनं जन्मसन्ततिम् ।
न हि मन्त्रोऽक्षरन्यूनो निहन्ति विषवेदनाम् ।।२१।। अर्थ :- अंगों से हीन सम्यग्दर्शन संसार की परिपाटी जन्मपरम्परा छेदने में समर्थ नहीं होता है; जैसे हीनाक्षर - मन्त्र विष की वेदना को नष्ट नहीं कर सकता है। जिसके भावों में निःशंकितादि अंग प्रकट होते हैं वही सम्यग्दृष्टि संसार परिभ्रमण का नाश करता है । जिसका आठ अंगों में से यदि एक अंग भी कम हे प्रकट नहीं हो पाया है, उसके संसार का अभाव उसी प्रकार नहीं होता है, जिस प्रकार अक्षरहीन - मंत्र सर्पादि का विष दूर नहीं कर सकता है।
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