Book Title: Ratnakarandak Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Mannulal Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates प्रथम सम्यग्दर्शन अधिकार]
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परमार्थ भी नष्ट हो जायेगा। इसलिये लोग अनादिकाल से ही बाह्य शुचिता को अपनाकर मन की ग्लानि मिटा लेते हैं।
जगत में कितनी ही वस्तुएँ तो समय व्यतीत होने से ही शुद्ध मान लेते हैं। जैसे रजस्वला स्त्री को तीन रातें बीत जाने पर शुद्ध होना मानते हैं, किन्तु शरीर तो किसी काल भी शुद्ध नहीं मानते हैं । १। कितने ही जूठे धातु के बर्तन राख से मांजने से शुद्ध मानते हैं, परन्तु शरीर तो राख-भस्म लगाने से शुद्ध नहीं होता है । २। कितने ही धातु के बर्तन जो शुद्रादि द्वारा प्रयोग में लिये गये हों उन्हें तो अग्नि में डालने से शुद्ध मानते हैं, परन्तु शरीर तो अग्नि के संसर्ग से शुद्ध नहीं होता हे। ३। ___मल-मूत्रादि का स्पर्श मिट्टी से धोने से शुद्ध मानते हैं, परन्तु शरीर तो मिट्टी से धोने से - लगाने से शुद्ध नहीं होता है । ४। भूमि आदि को गोबर से लीपने से शुद्ध होना मानते हैं, परन्तु गोबर लगाने से शरीर तो शुद्ध नहीं होता है । ५। कीचड़ आदि लगने पर तथा शूद्रादि का स्पर्श हो जाने पर जल से धोने से तथा स्नान करने से शुद्धता मानते हैं, परन्तु शरीर तो स्नान करने से शुद्ध नहीं होता है। स्नान करने के बाद भी चंदन, पुष्प आदि पवित्र वस्तु भी शरीर के स्पर्शमात्र से मलिन हो जाती है । ६। कितने ही भूमि, पाषाण, किवाड़ लकड़ी आदि हवा से शुद्ध होना मानते हैं, परन्तु शरीर तो हवा लगने से शुद्ध नहीं होता है । ७। कितने ही पदार्थ जिन्हें अपने ज्ञान में अशद्ध माना ही नहीं है इसीलिये ज्ञान में शद्ध मानते हैं, परन्तु शरीर में तो शुद्धपने का ज्ञान में कोई संकल्प ही नहीं कर सकते हैं । ८।
इसलिये शरीर तो आठों प्रकार की लौकिक शुचियों द्वारा शुद्ध नहीं होता है। लौकिक शौच से परिणामों की ग्लानि मिट जाती है। व्यवहार की उज्ज्वलता देखकर कुल की उच्चता ख्याल में आ जाती हैं, परन्तु वह शरीर को पवित्र नहीं कर सकती है। शरीर तो सब प्रकार से अपवित्र ही है। इस शरीर में रहकर जो आत्मा पराया धन और पराई-स्त्री के प्रति चाह रहित और जीवमात्र की विराधना रहित हो जाय तो हाड़मांस का यह मलिन शरीर भी देवों द्वारा पूज्य महापवित्र हो जाय। इस शरीर को पवित्र करने का अन्य कोई कारण ही नहीं है। यह कथन दिगम्बर वीतराग मुनि श्री पद्मनंदि ने किया है – ऐसा जानना।
जिसकी निकटता से सुगंधित पुष्पों की माला, चंदन आदि पवित्र पदार्थ भी न छूने योग्य हो जाते हैं; विष्टा, मूत्र आदि से भरा, रस, रक्त, चाम, हाड़ आदि से बना और बहुत ही गंदा, दुर्गंधित, मलिन, समस्त अपवित्रताओं का एक साथ रहने का स्थान ऐसा यह मनुष्य का शरीर जल से स्नान करने से कैसे शुद्ध होगा?
आत्मा तो अपने स्वभाव से ही अत्यन्त पवित्र है। आत्मा तो अमूर्तिक है, उस तक जल की पहुँच ही नहीं है। ऐसे पवित्र आत्मा का स्नान करना व्यर्थ है। यह शरीर अपवित्र ही है, वह स्नान करने से कभी पवित्र नहीं होता है। इसलिये दोनों प्रकार से स्नान की व्यर्थता सिद्ध हुई। फिर भी जो स्नान करते हैं उनके द्वारा पृथ्वीकाय, जलकाय आदि व अनेक प्रकार के त्रसकाय जीवों का घात होने से वह स्नान पापबंध का कारण और रागभाव की वृद्धि का ही हेतु हुआ।
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