Book Title: Ratnakarandak Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Mannulal Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates प्रथम सम्यग्दर्शन अधिकार
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मूढ़ताओं के तीन भेद हैं, वे तीनों ही सम्यक्त्व की घातक हैं। अतः तीनों प्रकार की मूढ़ताओं का स्वरूप जानकर सम्यग्दर्शन को शुद्ध करना उचित है। अब लोकमूढ़ता का स्वरूप कहनेवाला श्लोक कहते हैं -
आपगा सागरस्नानमुच्चयः सिकताश्मनाम् ।
गिरिपातोऽग्निपातश्च लोकमूढं निगद्यते ।।२२।। अर्थ :- जो लौकिक – मिथ्याधर्मी लोग हैं उनका आचरण देखकर जो नदी में स्थान करने में धर्म मानते हैं, समुद्र में स्नान करने में धर्म मानते हैं, रेत का ढेर-पाषाण का ढेर करने में धर्म मानते हैं, पर्वत से गिर पड़ने में धर्म मानते हैं, अग्नि में गिर पड़ने धर्म मानते हैं उसे लोकमूढ़ता कहते हैं। सम्यग्दर्शन लोकमूढ़ता रहित ही होता है।
यहाँ मिथ्यात्व के उदय से देशकाल के भेद से लौकिक, अज्ञानी, परमार्थ रहित लोग अनेक प्रकार की प्रवृत्ति करके अपने को धर्म होना, पवित्र होना, लाभ होना, वियोग नहीं होना, दीर्घ जीवन मिलना आदि मानते हैं। उस लोकमूढ़ता को प्रकट अज्ञान जान करके उसका त्याग करके सम्यक्त्वभाव की विशुद्धता करनी चाहिये।
यहाँ कितने ही एकान्ती लोग हैं, वे स्नान करके अपने को पवित्र मानते हैं। अतः ज्ञानियों को आगम-ज्ञान पूर्वक विचार करना चाहिये कि - जो आत्मा है वह तो अमूर्तिक है, उस तक तो स्नान पहुँचता ही नहीं है; और जो शरीर है वह महाअपवित्र है, इसके स्पर्श से पवित्र चंदन-गंगाजल-पुष्पादि भी स्पर्श करने योग्य नहीं रहते हैं। यह शरीर हड्डी, मांस, खून, चमड़ा इत्यादि अपवित्र साम्रगी से बना है तथा दुर्गन्ध, विष्टा, मूत्र, आदि अपवित्र द्रव्यों से भरा है; तथा जिसके मुख के रास्ते से तो महाअपवित्र कफ, लार, दांतों का मैल , जिह्वा का मैल निरन्तर ही बहता रहता है; नेत्रों द्वारा चिकना दुर्गन्धित कीचड़ बहता रहता है; अधो द्वार से मल-मूत्र दुर्गन्धित आँव-कृमि आदि को निरन्तर बहाता रहता है; कानों में से कर्णमल बहता है; नासिका में से निरन्तर दुर्गन्धित घृणा योग्य नाक बहती है; और सम्पूर्ण शरीर के रोमों से महा दुर्गन्धित मलिन पसीना बहता रहता है।
जिसके नव द्वारों से निरन्तर मल बहता रहता है ऐसा शरीर जल द्वारा स्नान करने से कैसे शुद्ध माना जाये ? जैसे मल से बनाया हुआ घड़ा, मल से ही भरा और सभी तरफ से जिसमें से मल बह रहा हो, वह जल द्वारा धोने से कैसे शुद्ध हो सकता है ?
इस लोक में जो भी वस्तु, भूमि, क्षेत्र, अशुचि या अपवित्र कहलाते हैं वे सभी इस शरीर के स्पर्श से - संगम से ही अपवित्र हुए हैं। कोई चमड़ा पड़ने से, कोई बाल गिरने से, कोई जूठन फेंकने से अपवित्र क्षेत्र कहलाते हैं। रक्त, मांस, हड्डी, वसा, पीव, मल, मूत्र, थूक , लार, कफ, नाक का मैल आदि के स्पर्श हो जाने से ही, स्नान के जल के छीटे लगने से ही, कुल्ला के छीटों के स्पर्श से ही अपवित्र हो जाना देखते-सुनते ही है। इसलिये अच्छी तरह विचार करो - शरीर के स्पर्श-संगम बिना कही कोई अपवित्रता है ही नहीं। ऐसा अपवित्रता का स्थान शरीर , जल के स्नान
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