Book Title: Ratnakarandak Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Mannulal Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
View full book text
________________
१४]
Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates
[श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार
उनसे हम कहते हैं - तुम्हारा मांसमय, मलिन चमड़े से ढका, मल-मूत्रादि से भरा, कफ, लार आदि से लिप्त शरीर का दर्शन करने से क्या लाभ है ? आत्मज्ञान रहित समस्त जगत के अभक्ष्य पदार्थों को खानेवाले तुम्हारे शरीर का देखना तो कर्मबंध का ही कारण है। तुम्हारा कल्पित सूत्र का श्रवण हमारे सम्यक्त्व का नाश करनेवाला तथा नवीन कर्मबंध ही का कारण है। जिनेन्द्र के धातु पाषाण के प्रतिबिम्ब के दर्शन मात्र से परम वीतराग सर्वज्ञ का ध्यान स्पष्ट प्रगट हो जाता है, परमशान्ति और शुभोपयोग हो जाता है। तुम्हारे पापमय शरीर को देखने से पाप का बंध होता है।
और कैसे हो तुम ? अत्यंत अभद्र (विट् ) रूप, विकारी, रागद्वेष कषायादि पापमल सहित, अयोग्य-अभक्ष्य आहार के लम्पटी, हिंसादि पापों में प्रवृत्ति करने वाले, अन्य जीवों को मिथ्या मार्ग पर चलानेवाले, तुम्हें देखने से ही घोर पाप का बंध होता है। तुम्हारी प्रशंसा करनेवाले को सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर की स्थितिवाला मोहनीयकर्म का बंध होता है।
इस कलिकाल में जैनधर्म का सच्चामार्ग श्वेताम्बरों ने बिगाड़ दिया है। इसलिये इनका स्वरूप बताने के लिये यहाँ प्रकरण पाकर उन श्वेताम्बरों के मत का स्वरूप का वर्णन किया है। इनके मत में सच्चा आप्तपना कैसे होगा? अन्यमतवालों के जो देव प्रत्यक्ष भयभीत, तथा असमर्थ होकर चक्र, त्रिशूल, तलवार आदि धारण किये हुए हैं; कामी होकर स्त्रियों के वशीभूत हो रहे हैं; भूख, प्यास, काम राग, द्वेष, निद्रा, नीहार, बैर, विरोध आदि जिनका प्रगट ही दिखाई दे रहा है उनमें निर्दोषपना कैसे हो सकता है ? जो इंद्रियज्ञान सहित ज्ञानी उनमें सर्वज्ञपना, आप्तपना कहाँ से होगा ? आप्तपना तो सर्वज्ञ, वीतरागी परम हितोपदेशी के ही बनता है।
अब पूर्वा–पर विरोध आदि दोषों से रहित पदार्थों का सच्चा उपदेश देनेवाला जो शास्ता उसके नाम की सार्थकता बतानेवाला श्लोक कहते हैं -
परमेष्ठी परंज्योतिः विरागो विमल: कृती।
सर्वज्ञोऽनादि मध्यान्तः सार्व: शास्तो पलाल्यते ।।७।। अर्थ :- जो अर्थ सहित इन आठ नामों को सार्थक करता है उसे शास्ता कहते हैं - परमेष्ठी, पंरज्योति, विराग, विमल, कृती, सर्वज्ञ, अनादिमध्यान्त और सार्व-ये आठ जिसके सार्थक नाम हैं वह शास्ता है, उसी को आप्त कहते हैं।
भावार्थ :- परमेष्ठी अर्थात् परमइष्ट। इन्द्रादिकों के द्वारा वंदनीय जो परमात्मस्वरूप में ठहरा है वह परमेष्ठी है। परमेष्ठी और कैसा होता है ? अंतरंग तो घातिया कर्मों के नाम से प्रगट हुआ है। अनंतज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य स्वरूप अपना जो निर्विकार, अविनाशी, परमात्म स्वरूप उसमें स्थित है; और बाह्य में इंद्रादिक असंख्यात देवों द्वारा वंद्यमान, समोशरण सभा के बीच में तीन पीठिकाओं के ऊपर, दिव्य सिंहासन में चार अंगुल अधर, चौंसठ चमरों सहित विराजमान, तीन छत्र आदि दिव्य संपत्ति से विभूषित, इंद्रादिक देव और मनुष्यों आदि निकटभव्यों को धर्मोपदेशरूप अमृत का पान
Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com