Book Title: Ratnakarandak Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Mannulal Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates प्रथम सम्यग्दर्शन अधिकार
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रहता है तथापि अभावरूप सा ही हो जाता है; अतः हमारा लोक तो हमारा ज्ञान ही है। हमारे ज्ञान के बाहर की कोई भी वस्तु देखने में जानने में नहीं आती है। हमारे ज्ञान से बाहर जो लोक है, जिसमें अनेक नरक-स्वर्ग हैं – जो सर्वज्ञ को प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं, वे सब मेरे स्वभाव से भिन्न अन्य पदार्थ हैं। पुण्य का उदय देवादि शुभगति का देनेवाला है, और पाप का उदय नरकादि अशुभ गति का देनेवाला है। पाप-पुण्य दोनों ही विनाशीक हैं तथा पुण्य-पाप का फल स्वर्ग-नरकादि भी विनाशीक हैं।
मैं आत्मा ज्ञान-दर्शन-सुख-वीर्य का अविनाशी रूप से धारण करनेवाला अखण्ड हूँ, मोक्ष का नायक हूँ। मेरा लोक मुझमें ही हैं, मैं उसी अपने लोक में समस्त पदार्थों का अवलोकन करता हुआ रहता हूँ। इस प्रकार परलोक का भय नहीं करता हुआ सम्यग्दृष्टि निःशंक है।
स्पर्शन. रसना. घ्राण. नेत्र. कर्ण-ये पांच इंद्रियां, मन-वचन-काय ये तीन बल, आय तथा श्वासोच्छ्वास – ये कर्मों द्वारा रचे गये बाह्य दश प्राण है, जो पुद्गलमय हैं। इन दश प्राणों का नाश होने को जगत में मरण कहते हैं। आत्मा के ज्ञान-दर्शन-सुख-सत्ता रूप भावप्राण हैं, जिनका किसी भी काल में नाश नहीं होता है। जो उत्पन्न होगा वह मरेगा। पुद्गल परमाणु एकत्र होकर इंद्रियादि प्राण स्वरूप से उत्पन्न होते हैं, वे ही नष्ट होते हैं। जो मेरे स्वभावरूप ज्ञान-दर्शन-सुख-सत्ता प्राण हैं, उनका तीनकाल में कभी भी विनाश नहीं होता है। इंद्रियादि प्राण तो पर्याय (शरीर) के साथ उत्पन्न और नष्ट होते हैं। मैं तो चैतन्य अविनाशी हूँ। ऐसा दृढ़ निश्चय करने वाले सम्यग्दृष्टि को मरण के भय की शंका नहीं होती है।
वेदना भय को जीतकर निःशंकित हुआ जाता है। वेदना का अर्थ है - जानना । मैं जाननेवाला जीव हूँ और अपने एक अचल ज्ञान का ही अनुभव करता हूँ। मैं वेदनस्वरूप अनिवाशी हूँ। ज्ञान का अनुभवरूप वेदन शरीर में नहीं होता है। वेदनीय कर्मजनित सुखदुःखरूप वेदन शरीर में है, परन्तु वह मेरा रूप नहीं है, मोह की महिमा से अपने स्वरूप में दिखाई देता है। मैं तो इससे भिन्न ज्ञाता ही हूँ। इस प्रकार ज्ञानवेदना से देह की वेदना को भिन्न जानता हुआ सम्यग्दृष्टि निःशंक है।
__ अनरक्षा भय भी सम्यग्दृष्टि को नहीं होता है। जगत में भी सत्तारूप वस्तु है, उसका त्रिकाल में भी नाश नहीं होता है, ऐसा मुझे दृढ निश्चय है। मेरा ज्ञानस्वरूप आत्मा किसी की सहायता के बिना स्वयं सत् है। इसका न तो कोई रक्षा करनेवाला ही है और न ही कोई नाश करनेवाला है। जिसका कोई नाश करनेवाला हो तो कोई उसका रक्षक भी होना चाहिये। अतः सम्यग्दृष्टि अपने अविनाशी स्वरूप का अनुभव करता हुआ अनरक्षा भय रहित निःशंक है। ___अगुप्ति भय अर्थात् कपाट आदि सुरक्षा किये बिना हमारा धन नष्ट हो जायेगा, ऐसा चोर का भय भी नहीं है। वस्तु का जो निजरूप है, वह अपने स्वरूप के भीतर ही है; अपना स्वरूप अपने से बाहर नहीं है। इसलिये मैं जो चैतन्यस्वरूप आत्मा हूँ, उसका चैतन्यस्वरूप हमारे भीतर ही है।
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