Book Title: Ratnakarandak Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Mannulal Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
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[श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार
३०]
भोजनादि सामग्री द्वारा अपनी पूजन कराना चाहता है। इसलिये खोटे मार्ग जो संसार में पतन के कारण हैं, ऐसा मिथ्यादृष्टियों के त्याग, व्रत, तप, उपवास , भक्ति, दानादि की तथा इनके धारण करनेवालों की मन-वचन-काय से प्रशंसा नहीं करना, वह अमूढ़दृष्टि नाम का सम्यक्त्व का चौथा अंग है। __ इसलिये देव-कुदेव का, धर्म-कुधर्म का, गुरु-कुगुरु का, पाप-पुण्य का, भक्ष्य-अभक्ष्य का, त्याज्य-अत्याज्य का, आराध्य-अनाराध्य का, कार्य-अकार्य का, शास्त्र-कुशास्त्र का, दानकदान का, पात्र-अपात्र का, देने योग्य नहीं देने योग्य का. यक्ति-कयक्ति का. कहने योग्यनहीं कहने योग्य का, ग्राह्य-अग्राह्य का अनेकान्तरूप सर्वज्ञ वीतराग के परमागम से अच्छी तरह जानकर निर्णयकर मूढ़ता रहित होना, पक्षपात छोड़कर व्यवहार-निश्चय (परमार्थ) में विरोध रहित होकर यथावत् श्रद्धान करना वह अमूढ़दृष्टि नाम का चौथा अंग है। अब उपगूहन नाम के सम्यक्त्व के पाँचवें अंग की प्ररूपणा करनेवाला श्लोक कहते हैं -
स्वयंशुद्धस्य मार्गस्य, बालाशक्तजनाश्रयाम् ।
वाच्यतां यत्प्रमार्जन्ति, तद्वदन्त्युपगूहनम् ।।१५।। अर्थ :- यह जो जिनेन्द्र भगवान का कहा हुआ रत्नत्रयरूप मार्ग है वह स्वयमेव शुद्ध है, निर्दोष है। इस रत्नत्रय मार्ग की किसी अज्ञानी तथा असक्त मनुष्य द्वारा आश्रय किये जाने से जो निंद्यता प्रकट हुई हो उसे दूर कर देना, शुद्ध निर्दोष कर देने को उपगूहन कहते हैं।
यहाँ ऐसा विशेष जानना - जो यह जिनेन्द्र भगवान द्वारा उपदेशित दश लक्षणरूप धर्म तथा रत्नत्रयरूप धर्म है वह अनादिनिधन है. जगत के जीवों का उपकार करनेवाला है. सभी प्रकार से निर्दोष है, इससे किसी का भी अकल्याण नहीं होता है और किसी के द्वारा बाधित नहीं किया जा सकता है। ऐसे धर्म में किसी अज्ञानी की भूल के कारण अथवा किसी की शक्ति की हीनता के कारण यदि धर्म की निन्दा होती हो तो उसे दूर कर देना, आच्छादन कर देना उपगूहन नाम का अंग है।
भावार्थ :- एक अज्ञानी की भूल-चूक को यदि अन्य मिथ्यादृष्टि सुनेंगे तो जैनधर्म की निन्दा करेंगे तथा समस्त धर्मात्माओं को दूषण लगावेंगे और कहेंगे कि इस जैनधर्म में तो जितने भी ज्ञानी, तपस्वी, त्यागी, व्रती है वे सभी पाखण्डी हैं, मिथ्यामार्गी हैं। इस प्रकार एक अज्ञानी का दोष देखे जाने से सम्पूर्ण धर्म और सभी धर्मात्माओं को दोष लग जायेगा। इसलिये जो धर्मात्मा पुरुष होते हैं वे किसी अन्य धर्मात्मा में यदि कोई दोष भी लग जाय तो धर्म से प्रीति के कारण धर्म में पर के निमित्त से आये दोष को ढांक देते हैं।
जैसे माता की पुत्र से ऐसी प्रीति होती है कि – यदि कदाचित् पुत्र कोई अन्याय या खोटा कार्य भी कर दे तो माता उसके उस खोटे कार्य को छिपा ही देती है, ढांक ही देती है; उसी प्रकार धर्मात्मा पुरुष की धर्म से तथा साधर्मी से ऐसी प्रीति होती है कि यदि किसी साधर्मी को कर्म के प्रबल उदय से अज्ञानता से अशक्ति से व्रत में, संयम में, शील में, दोष आ जाय, या बिगड़ जाय तो अपनी सामर्थ्य के अनुसार वह आच्छादन करता ही है।
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