Book Title: Ratnakarandak Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Mannulal Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
View full book text
________________
Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates प्रथम सम्यग्दर्शन अधिकार
[३१ यहाँ विशेष और भी जानना :- सम्यग्दृष्टि जीव का स्वभाव ही ऐसा है कि वह किसी भी जीव का दोष प्रगट नहीं करता है, अपना उच्चकार्य प्रकाशित नहीं करता है। सम्यग्दृष्टि को दूसरे जीवों के दोष भी दिख जाने पर ऐसा विचार उत्पन्न होता है - इस संसार में अनादिकाल से जीव कर्मों के वशीभूत हैं, इसलिये जब तक मोहनीयकर्म तथा ज्ञानावरण - दर्शनावरण कर्म का उदय चल रहा है तब तक दोष लगने का तथा भूल-चूक होने का क्या आश्चर्य है ? जीवों को काम-क्रोध-लोभादि निरन्तर मार रहे हैं, भ्रष्ट कर देते हैं। हमने भी राग-द्वेष-मोह के वश में होकर संसार में कौन-कौन से अनर्थ नहीं किये हैं ? ____ मुझे जिनेन्द्र के परमागम की शरण की कृपा से अब कुछ दोष और गुण की पहिचान हुई है, तो भी अनादिकाल की कषायों के संस्कार से अभी भी अनेक दोषों को कर रहा हूँ, इसलिये अन्यजीवों के कर्मों के उदय की पराधीनता से हुए दोषों को देखकर मुझे करुणा ही करना चाहिये। संसारी जीव विषयों और कषायों के वशीभूत हुए पराधीन हैं। ये कषाय और विषय जीव के ज्ञान को बिगाड़कर अनेक प्रकार का नाच नचाते हैं और अपना स्वरूप भुला देते हैं। अतः अज्ञानी जनों द्वारा किया गया दोष देखकर आप संक्लेश परिणाम नहीं करता है। क्षेत्र कालादि के निमित्त से जो भावी होनहार है उसे टालने में कोई भी समर्थ नहीं है। इस प्रकार उपगूहन नाम का सम्यक्त्व का पांचवां अंग कहा। अब स्थितिकरण नाम का सम्यक्त्व का छठवां अंग कहनेवाला श्लोक कहते हैं -
दर्शनाच्चरणाद्वापि चलितां धर्मवत्सलैः ।
प्रत्यवस्थापनं प्राज्ञैः स्थितिकरणमुच्यते ।।१६।। अर्थ :- कोई पुरुष पहले सम्यग्दर्शन सहित श्रद्धानी था तथा व्रत-संयम सहित चारित्र धारक था। पश्चात् किसी प्रबल कषाय के उदय से, खोटी संगति से, रोग की तीव्र वेदना से, दरिद्रता से, मिथ्या उपदेश से, तथा मिथ्यादृष्टियों के मंत्र-तंत्रादि चमत्कार देखकर सत्य श्रद्धान व आचारण से चलायमान होता हो तो उसे विचलित होता हो तो उसे विचलित जानकर जिनका धर्म में वात्सल्य है ऐसे धर्मात्मा प्रवीण पुरुष उसे उपदेशादि देकर पुन: सच्चे श्रद्धान व आचरण में स्थापित कर दें, उसे स्थितिकरण कहते हैं।
यहाँ ऐसा विशेष जानना :- किसी धर्मात्मा अव्रत-सम्यग्दृष्टि तथा व्रती-पुरुष के परिणाम यदि रोग की वेदना, दरिद्रता, वियोग से धर्म से चिग जाय तो धर्म से प्रीति करनेवाला समझदार पुरुष उसे धर्म से छूटता जानकर उपदेश आदि देकर धर्म में स्थिर कर दे, उसके स्थितिकरण अंग है।
हे धर्म के इच्छुक धर्मानुरागी ! सुनो !! यह मनुष्यभव, उसमें उत्तम कुल, इंद्रियों की शक्ति, धर्म का लाभ - ये सब बहुत दुर्लभ चीजें मिली हैं। इनका वियोग हो जाने के बाद पुनः इनका मिलता अनंतकाल में भी कठिन है। इसलिये कर्म के उदय से प्राप्त हुए रोग, वियोग, दारिद्रादि के दुखों से कायर होकर आर्त परिणामी होना योग्य नहीं है। दुःखी होने पर कर्म का अधिक बंध होगा। कायर होकर भोगोगे तो भी कर्म नहीं छोड़ेगा, और धीरवीरपने से भोगोगे तो भी कर्म नहीं छोड़ेगा। दुर्गति की कारण यह कायरता है उसे धिक्कार हो। आप तो अब साहस धारण करो।
Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com