Book Title: Ratnakarandak Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Mannulal Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates [ श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार
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उच्च प्रवृत्ति चाहता है। धन, संपदा, जीविका बिगड़ जाने का भय होता ही है, अपयश तिरस्कार होने का भय होता ही है । इन्द्रियों का कष्ट सहने की असमर्थता से विषयों को चाहता ही है। अभी कषाय घटी नहीं है, राग घटा नहीं है, इसलिये आगे अधिक दुःख होना दिखाई देता है, उसे टालना ही चाहता है, फिर भी राज्य भोग संपदादि को दुःखरूप जानकर उनकी चाह नहीं करता है । इस प्रकार निःकांक्षित अंग का स्वरूप कहा ।
अब निर्विचिकित्सा नामक तीसरे अंग का लक्षण कहनेवाला श्लोक कहते हैं स्वभावतोऽशुचौ काये रत्नत्रयपवित्रते ।
निर्जुगुप्सा गुणप्रीतिः मता निर्विचिकित्सिता ।।१३।।
अर्थ :- यह मनुष्य पर्याय का जो शरीर है वह स्वभाव से ही अपवित्र है। यहाँ किसी उत्तम मनुष्य के यदि रत्नत्रय प्रगट हो जाय तो उसकी अशुचि देह भी पवित्र है । इसलिये व्रतियों का शरीर रोगादि से मलिन देखकर भी उसमें ग्लानि का अभाव तथा रत्नत्रय में प्रीति होना उसका नाम निर्विचिकित्सा अंग है ।
भावार्थ :- यह शरीर तो सप्त धातुमय तथा मल-मूत्रादिमय है, स्वभाव ही से अशुचि है । यह शरीर तो रत्नत्रय का स्वरूप प्रगट होने से पवित्र हो जाता है। इसलिये रोग सहित, वृद्धावस्था तथा तपश्चरण क्षीणता, मलिनता देखकर, जिसे ग्लानि नहीं होती है, किन्तु गुणों में प्रीति होती है, उसके निर्विचिकित्सा नाम का अंग है।
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यहाँ ऐसा विशेष जानना जो सम्यग्दृष्टि है, वह वस्तु का सच्चा स्वरूप जानता ही है, इसलिये पुद्गल के अनेक स्वभाव जानकर मल, मूत्र, रक्त, मांस, पीव सहित तथा दरिद्रता, रोगादि सहित मनुष्य व तिर्यंचों के शरीरादि की मलिनता, दुर्गन्धादि देखकर-सुनकर ग्लानि नहीं करता है 1
कर्मों के उदय से क्षुधा, तृषा, रोग, दरिद्रतादि से दुःखी होना; पराधीन बंदीगृह आदि में पड़ जाना, नीच कुलादि में उत्पन्न होना, नीच कर्म से मलिन भोजन करना, मैले गंदे वस्त्र पहिनना, खोटा रूप - अंग उपांग की प्राप्ति होती है। सम्यग्दृष्टि इनमें ग्लानि करके अपने मन को खराब नहीं करता है; तथा कषायों के आधीन हुए निंद्य आचरण करनेवालों को देखकर अपने परिणाम नहीं बिगाड़ता है, उसके निर्विचिकित्सा अंग होता है।
मलिन क्षेत्र, मलिन ग्राम, गृहादि में मलिनता और दरिद्रता देखकर ग्लानि नहीं करता है। अंधकार, वर्षा, शीतादि के कष्ट के समय को देखकर ग्लानि नहीं करता है। अपने को गरीबी तथा रोग का आना देखकर, इष्ट का वियोग होना व अशुभ कर्म के उदय को आता देखकर उस समय अपने परिणाम मलिन नहीं करता है। मैनें जो कर्म बन्ध किये उनके फल को मैं ही भोगूंगा, अशुभ कर्म का फल तो ऐसा ही होता है जो इस प्रकार जानकर अपने परिणामों को मलिन नहीं करता है, उस पुरुष के निर्विचिकित्सा अंग होता है।
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