Book Title: Ratnakarandak Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Mannulal Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
View full book text
________________
Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates प्रथम सम्यग्दर्शन अधिकार
[२७
हुआ हैं; और ज्ञानश्रद्धान की विपरीतता के अभाव से इसलोक भय, परलोक भय, मरणभय, आदि सातों भय अव्रत-सम्यग्दृष्टि के नहीं हैं। इसी कारण से वह अपने आत्मा का अखण्ड, अविनाशी, टंकोत्कीर्ण ज्ञान-दर्शन स्वभाव का श्रद्धान करता है। परवस्तु की वांछारूप जो विपरीतता उसका अभाव होने से समस्त इंद्रियों के विषयों में वांछा रहित है। स्वर्गलोक में उत्पन्न हुए इन्द्र और अहमिन्द्रों के भी विषयभोगों को विष के समान दाहदुःख उत्पन्न करनेवाले जानकर कभी स्वप्न में भी उनकी वांछा नहीं करता है। अपना आत्माधीन निराकुलता लक्षणरूप अविनाशी ज्ञानानंद ही को सुख मानता है। अपने शरीर को तथा धन सम्पदादि को कर्म-उदयजनित, पराधीन, विनाशीक, दुःखरूप जानकर ' ये हमारा है' ऐसा विपरीत संकल्प भी नहीं करता है। ___अनंतानुबंधी कषाय के उदयजनित विपरीत झूठा भय, शंका, परवस्तु में वाछां अव्रतसम्यग्दृष्टि के कभी नहीं होती है। परन्तु अप्रत्याख्यानावरण कषाय ४, प्रत्याख्या ४, संज्वलन कषाय तथा हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुसकवेद- इन इक्कीस कषायों के तीव्र उदय से उत्पन्न हुए रागभाव के प्रभाव से इन्द्रियों के दुःख का मारा है; अतः त्याग करने से परिणाम कांपते हैं, यद्यपि विषयों को दुःखरूप जानता है तथापि वर्तमानकाल का दुःख सहने को समर्थ नहीं है।
जैसे रोगी कडुवी औषधि को पीना कभी भी अच्छा नहीं मानता है, फिर भी दुःख का सताया कडुवी औषधि को बड़े प्रेम से पीता है; किन्तु अन्तरंग में औषधि पीने को बहुत बुरा जानता है और विचारता है कि – कब वह दिन आवेगा जब मैं औषधि का ना उसी तरह अव्रत-सम्यग्दृष्टि भी भोगों को कभी भला नहीं मानता है; परन्तु उनके बिना निर्वाह होता नहीं दिखाई देता, परिणाम की दृढ़ता नहीं दिखाई देती, कषायों का प्रबल धक्का लग रहा है, इन्द्रियों का दुःख नहीं सहा जाता है, इसलिये दुःख का सताया भोगों को चाहता है।
संहनन कमजोर है, कोई सहायता करनेवाला दिखता नहीं है, कषायों के उदय से शक्ति नष्ट हो रही है, परवश में पड़ा है। जैसे जैलखाने में बंद पुरुष जैल से अत्यंत विरक्त है, फिर भी पराधीन होकर महादुःख देनेवाले उस जैलखाने को भी लीपता है, धोता है, झाड़ता है; उसी तरह अव्रत-सम्यग्दृष्टि भी शरीर को जैलखाने के समान जानता है, भूखप्यास के कष्ट सहने में असमर्थ होकर शरीर का पोषण करता है, किन्तु देह को अपना नहीं मानता-जानता है। वर्तमान काल के दुःख का ही उसे डर है और उस दुःख को दूर करने मात्र को ही अव्रत सम्यग्दृष्टि के वांछा है। कर्म के उदय के जाल में फंसा है, निकलना चाहता है तथापि राग, द्वेष, अभिमान , अप्रत्याख्यान के उदय का प्रभाव ही ऐसा है कि वह त्याग-व्रतादि चाहता तो है किन्तु वे त्यागी होने नहीं देते है।
उदय की दशा बड़ी बलबान है। संसारी जीव अनादिकाल से कर्म के उदय के जाल में से निकल नहीं सका है। जब तक शरीर का संयोग है तब तक शरीर के निर्वाह के लिये जीविका, भोजन, वस्त्र चाहता ही है। अप्रत्याख्यान कषाय के उदय से लोक में अपनी नीची प्रवृत्ति के अभावरूप
Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com