Book Title: Ratnakarandak Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Mannulal Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
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[श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार
२४]
इस आत्मा के स्वरूप में पर का प्रवेश ही संभव नहीं है। यह अनन्त ज्ञान-दर्शनमय हमारा रूप ही हमारा असीम अविनाशी धन है; इसमें चोर का प्रवेश नहीं हो सकता, इसे चोर नहीं चुरा सकता है। अतः सम्यग्दष्टि अगप्ति भय रहित निःशंक है।
सम्यग्दृष्टि को अकस्मात् भय भी नहीं है। वह तो जानता है कि – मेरा आत्मा तो सदाकाल शुद्ध है, ज्ञाता है, द्रष्टा है, अचल है, अनादि है, अनन्त है, स्वभाव से सिद्ध है, अलक्ष-अरूपी है, चैतन्य प्रकाशरूप है, सुख का स्थान है, इसमें अचानक कुछ भी होता नहीं है। ऐसे दृढभाव सहित सम्यग्दृष्टि निःशंक है।
जिसे सम्यग्दर्शन है, उसे परिणामों में सातों ही भय नहीं होते हैं। अपना सच्चा स्वरूप जाने बिना यह आत्मा सप्तभय रहित नहीं होता है।
सम्यग्दृष्टि अहिंसा को ही निश्चयरूप धर्म जानता है । जिसको ऐसी शंका ही नहीं उत्पन्न होती है कि यज्ञ-होमादि जीवघात के आरम्भ में कुछ थोड़ा-सा तो धर्म होगा। ऐसी शंका का अभाव वह निःशंकित अंग है। अब दूसरे निःकांक्षित गुण को कहनेवाला श्लोक कहते हैं - ___ कर्मपरवशे सान्ते दुःखैरन्तरितोदये।
पापबीजे सुखेऽनास्था श्रद्धानाकांक्षणा स्मृता ।।१२।। अर्थ :- इन्द्रियजनित सुख में सुखपने की आस्था रहित जो श्रद्धान भाव वह अनाकांक्षा नाम का सम्यक्त्व का गुण भगवान ने कहा है।
भावार्थ :- कैसा है इन्द्रियजनित सुख ? कर्मों के परवश है, स्वाधीन नहीं है, पुण्य कर्म के उदय के आधीन है। पुण्य कर्म के उदय की सहायता के बिना करोड़ों उपाय तथा महान पुरुषार्थ करने पर भी इस सुख की प्राप्ति नहीं होती है, इष्ट का लाभ नहीं होता है, बहुत प्रकार से अनिष्ट ही प्राप्त होते हैं।
कदाचित् पुण्य के उदय से वह सुख प्राप्त भी हो जाय तो वह सुख अन्त सहित है, पराधीन है, कितने समय तक भोगा जायेगा ? क्योंकि जो इन्द्रियजनित सुख है, वह अपने इष्ट विषय के आधीन हे, और इष्ट का समागम विनाशीक है - इंद्रधनुष के समान, बिजली की चमक के समान क्षणभंगुर तथा पराधीन है। वह सुख शरीर की नीरोगता के आधीन, धन के आधीन, स्त्री के आधीन, पुत्र के आधीन, आयु के आधीन, जीविका के आधीन, क्षेत्र के आधीन, काल के आधीन, इन्द्रियों के आधीन, इन्द्रियों के विषयों के आधीन, इत्यादि हजारों पराधीनताओं सहित है; तथा विनाश के सम्मुख है, कितने समय तक भोगा जावेगा ? इसलिये जो इंद्रियजनित सुख है वह अवश्य ही अन्त सहित है।
अंत सहित है तो भी अखण्ड धाराप्रवाहरूप नहीं है। बीच-बीच में अनेक दुःखो के उदय सहित है। कभी तो रोग का आ जाना, कभी अपमान
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