Book Title: Ratnakarandak Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Mannulal Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates प्रथम सम्यग्दर्शन अधिकार
जिन आगम में प्रत्यक्ष तथा अनुमान से बाधा नहीं आवे वही आगम प्रामाणिक है। जिसमें प्रत्यक्ष-प्रमाण तथा अनुमान-प्रमाण से बाधा आ जाये वह आगम प्रामाणिक नहीं है।
जिस आगम से स्व और पर का निर्णय नहीं हो सके, जिस आगम में हेय-उपादेय, कृत्य-अकृत्य, देव-कुदेव, धर्म-अधर्म, हित-अहित, ग्राह्य-अग्राह्य , भक्ष्य-अभक्ष्य का निर्णय करानेवाला सच्चा वस्तुस्वरूप नहीं कहा हो वह मिथ्या आगम है।
जिसमें व्यर्थ के शब्दों के आडम्बररूप लोकरंजन की असत्य कथायें, देशकथा, राजकथा, स्त्रीकथा, काम-कथा आदि द्वारा अनेक संसार में ही उलझानेवाली विकथाओं रूप वर्णन किया हो; किन्तु आत्मा का संसार से उद्धार करने के उपायरूप कथन नहीं किया हो वह भी मिथ्या आगम ही है।
जिसमें तत्त्वभूत जीव के हित का उपदेशरूप कथन किया हो ऐसा तत्त्वोपदेशकृत ही आगम है। जो सर्वप्राणियों का हितरूप उपदेश करनेवाला हो सो ही सार्व विशेषण युक्त आगम है।
जिसमें प्राणियों की हिंसा करने का कथन हो; मांस भक्षण और जल-थल-आकाशगामी जीवों को मारने के उपाय बताये हों; महाआरम्भ का, मारण-उच्चाटन करने का; दूसरों का धन छीनने का, युद्ध करने का, सेना को नष्ट करने का, नगर-ग्राम विध्वंस करने का; परिग्रह में, परधन में, परस्त्री में आसक्त होने के उपायों का वर्णन किया हो वह आगम सार्व अर्थात् सर्वप्राणियों के हितरूप नहीं है।
जो कुमार्ग का निषेध करके स्वर्ग व मोक्ष के मार्ग के उपदेश करनेवाला हो का कापथघट्टन विशेषण सहित आगम है। जो श्रृंगार, वीररस आदि का वर्णन कर कुमार्ग में प्रवृत्ति करानेवाला हो; जुआ-मांसभक्षण आदि खोटे व्यसनोंरूप मार्ग में चलानेवाला हो; संसार समुद्र में डुबोने के निमित्त जो रागी-द्वेषी विषयी, कषायी देवों की सेवा तथा पाखण्डी भेषधारी गुरुओं की उपासना में लगानेवाला हो, तथा मिथ्याधर्मरूप जो कुमार्ग उसमें प्रवर्तन कराने का कथन जिसमें हो वह खोटा आगम है।
जो अधिक नहीं समझते हों उन्हें भी इतना तो अवश्य ही समझ लेना चाहिये कि जो वीतरागी का कहा आगम होगा उसमें रागादि विषय-कषायों का अभाव करने का तथा समस्त जीवों की दया पालने का - ये दो कथन तो मुख्य होंगे ही। इस प्रकार एक श्लोक में आगम का लक्षण कहा। अब जो तपस्वी अर्थात्-सच्चा गुरु है उसका स्वरूप कहनेवाला श्लोक कहते हैं :
विषयाशावशातीतो निरारम्भोऽपरिग्रहः।
ज्ञानध्यानतपोरक्तः तपस्वी स प्रशस्यते।।१०।। अर्थ - जो पांच इंद्रियों के विषयों की आशा अर्थात् वांछा से रहित हो, छह काय के जीवों का जिसमें घात होता है ऐसे आरम्भ से रहित हो, अंतरंग-बहिरंग समस्त परिग्रहों से रहित हो, ज्ञान-ध्यान तप में आसक्त हो-जो इन चार विशेषणों सहित तपस्वी अर्थात् गुरु है, वही प्रशंसनीय है।
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