Book Title: Ratnakarandak Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Mannulal Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
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[श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार यदि तुम यह कहोगे (१३) – अंतराय कर्म का अभाव हुआ है इसलिये इच्छा बिना ही मुख में ग्रास रख लेते हैं। तो हम पूछते हैं - अंतरायकर्म का अभाव भोगोपभोग , कामसेवन, विषय आदि का भी ग्रहण क्यों नहीं करा देता ?
यदि तुम कहोगे (१४) - द्रव्य , आभरण, काम, विषयादि का ग्रहण कर लेने से व्रत भंग हो जायेगा, दिक्षा भंग हो जायेगी, साधुपना नष्ट हो जाता है, किन्तु आहार करने से व्रत तथा दीक्षाभंग नहीं होती है। कवलाहार करने से तो साधु के धर्म का कारण देह की स्थिति बनी रहती है।
उसे उत्तर देते हैं - तुम्हारे श्वेताम्बरमत में व्रत धारण करने से और दीक्षा ग्रहण करने से ही केवलज्ञान उत्पन्न होता है, ऐसा नियम नहीं है। तुम मल्लिकुमारी के गृहस्थ अवस्था में ही केवलज्ञान की उत्पत्ति होना कहते हो; भरत चक्रवर्ती के समस्त छह खंड का राज्य भोगनेवाले के कांच के महल में केवलज्ञान का उपजना कहते हो; हाथी पर बैठी पुत्र के लिए रूदन करती हुई मरूदेवी के केवलज्ञान का होना कहते हो; बांस के ऊपर चढ़ा नट के केवलज्ञान का होना कहते हो; उपासरा ( साधुओं का निवास गृह) में बुहारी देती नौकरानी के केवलज्ञान का होना कहते हो ?
गृहस्थ के, स्त्री के, अन्य धर्मी के, कोई भी भेषधारी के, दण्डी, त्रिदण्डी, संन्यासी, कपाली, फकीर, जटाधारी, मुंड करने वाला, मृगछाला, बाघाम्बर ओढ़नेवाला समस्त कुलिंगधारियों के मोक्ष होना कहते हो? समस्त नाई, धोबी, खटीक, चाण्डाल आदि के मोक्ष होना कहते हो ? हृषिकेश चाण्डाल के केवलज्ञान और मोक्ष होना कहते हो?
तुम्हारे मत में तो व्रतों से, दीक्षा से भी प्रयोजन नहीं है ? तुम्हारे यहां तो केवलज्ञान गृहस्थ को पहले ही उत्पन्न हो जाता है, पश्चात् दीक्षा होती है और फिर पश्चात् यतिपना होता है - ऐसा कहते हो? पहले सर्वज्ञपना हो जाये और बाद में दीक्षा लें, तब दीक्षा लेने से तुम्हारा कौन प्रयोजन सिद्ध हुआ ? यदि गृहस्थ को भी मोक्ष हो जाये तथा अन्य कुलिंगधारियों को भी मोक्ष हो जाये, तो दिक्षा ग्रहण, मुख पट्टी बांधना, दण्ड ग्रहण, बोधापात्रों का ग्रहण निरर्थक रहेगा ? ऐसे तुम्हारे मत में हजारों दोष आते हैं।
यदि तुम यह कहोगे (१५) – असातावेदनीय कर्म के उदय से केवली को क्षुधा, तृषा, रोग, मल, मूत्र आदि होते हैं। __इसका उत्तर सुनो - सो ऐसा नहीं है। क्षुधा तो असातावेदनीय कर्म की उदीरणा से होती है। असाता की उदीरणा की छठवें गुणस्थान में व्युच्छित्ति हो जाती है, अतः सप्तम आदि गुणस्थानों में क्षुधादि वेदना का अभाव है।
और आगे सुनो - जिस काल मुनि श्रेणी चढते हैं उस समय सातिशय अप्रमत्त गुणस्थान में अधःकरण के प्रारम्भ में चार आवश्यक होते हैं – प्रतिसमय अनन्तगुणी विशुद्धि १, स्थितिबंध का अपसरण अर्थात् घट जाना २, सातावेदनीय आदि पुण्य प्रकृतियों में अनन्तगुणा रस का बढ़ जाना ३, असातावेदनीय आदि अशुभ प्रकृतियों का रस अनंतवें भाग घटकर निंब, कांजीर रूप दो प्रकार रह
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