Book Title: Punyasrav Kathakosha
Author(s): Ramchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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: १-५]
१. पूजाफलम् ५ जारासक्तया श्रीदामया मारितौ । शशकनकुलौ मूषकमयूरो सर्पसारंगौ गजद१रौ [जातौ] । तद्गजपादेन मृत्वा वारत्रयं दर्दुरो दर्दुर एव जातः। तद्गजपादेनैव मृत्वा कुर्कुटको [कुक्कुटोऽ] भूत् । गजो मार्जारो जातः। अनन्तरं कुर्कटो जातः। कुर्कटका काकैर्भक्षितो मृत्वा शिशुमारोऽभूत् । कुर्कटो मत्स्य-इत्यादिषु भ्रमित्वा राजगृहे विप्रवह्वाश-उलूकयोः मूढश्रुतिरागत्य विनोदनामा पुत्रोऽभूत् । इतरस्तदनुजो रमणः । स च विद्यार्थी देशान्तरं गतः । विद्यापारगो भूत्वागत्य रात्रौ स्वपुरं प्राप्य यक्षागारे स्थितः। नारायणदत्तजारासक्ता विनोदभार्या समिधा संकेतवशात्तत्रागत्य तेन सह जल्पन्ती स्थिता। तत्पृष्ठतः आगतेन विनोदेन अयमेव जार इति स्वभ्राता हतः। सा स्वगृहमानीता । तया सोऽपि हतः। चतुर्गतिं परिभ्रम्यैकदामहिषौ भिल्लौ [महिष-भल्लौ] अग्निना मतौ भिल्लौ तदनु हरिणौ जातौ। तयोर्माता वनचरेण मारिता। तो जीवन्तो धृत्वा नीतो पोषितौ वृद्धिं गतौ विमलनाथसर्वशं वन्दित्वागच्छता स्वयंभूतिनार्धराजेन द्रव्यं दत्त्वा स्वगृहमानीतौ । देवतागृहार्चननिकटे बद्धौ। तत्र रमणचरो हरिण उपशान्तचेतसा मृत्वा दिवं गतः । इतरस्तिर्यग्गतौ भ्रान्त्वा पल्लवदेशकाम्पिल्ये धनदत्तउन दृढ़ व्रतोंको मूढश्रुतिने नष्ट करा दिया । उन दोनोंको जार पुरुषमें आसक्त होकर श्रीदामाने मार डाला । इस प्रकार मर करके वे क्रमसे खरगोश और नेवला, चूहा और मयूर, सर्प और सारंग ( हरिण ) तथा हाथी और मेंढक हुए । मेंढक उस हाथीके पैरके नीचे दबकर मरा और तीन बार मेंढक ही हुआ । फिर वह उस हाथीके पैरसे ही मरकर मुर्गा हुआ और वह हाथी बिलाव हुआ। तत्पश्चात् वह केकड़ा हुआ। उस केंकड़ेको कौओंने खा डाला। इस प्रकारसे मरकर वह ( मूढ़श्रुति ) शिशुमार ( हिंस्र जलजन्तु ) हुआ । और कुर्कट मत्स्य हुआ । इस प्रकारसे परिभ्रमण करके मूढश्रुतिका जीव राजगृह नगरमें ब्राह्मण बह्वाश और उसकी पत्नी उलका ( उल्का ) इनके विनोद नामक पुत्र हुआ। दूसरा ( कुलंकर ) रमण नामक उसका लघु भ्राता हुआ। वह (रमण) विद्याध्ययनकी इच्छासे देशान्तरमें जाकर विद्याका पारगामी (अतिशय विद्वान् ) हुआ। तत्पश्चात् वह देशान्तरसे वापिस आकर रात्रिमें अपने नगरके पास किसी यक्ष मन्दिरमें ठहर गया। इसी समय विनोदकी पत्नी समिधा नारायणदत्त जारमें आसक्त होकर संकेतके अनुसार वहाँ आई और उससे वार्तालाप करती हुई स्थित हो गई। उसके पीछे उसका पति विनोद भी वहाँ आया। उसने 'यही जार है' ऐसा समझ करके अपने भाईको मार डाला । पश्चात् वह उसे ( पत्नीको ) घर लाया । पत्नीने उसे (विनोदको) भी मार डाला । पश्चात् वे दोनों ( विनोद और रमण) चारों गतियोंमें परिभ्रमण करते हुए भैंसा और भील [ भालु ] हुए जो अग्निमें जलकर मरणको प्राप्त हुए। फिर वे भील तत्पश्चात् हरिण हुए । उनकी माताको भीलने मार डाला था, परन्तु इन दोनोंको वह जीवित ही पकड़कर घर ले गया था । उसने इन दोनोंका पोषण करके वृद्धिंगत किया। एक समय स्वयंभूति राजा विमलनाथ जिनेन्द्रकी वन्दना करके वापिस आ रहा था। उसने इन्हें देखा और तब वह भीलको धन देकर उन्हें अपने घर ले आया । उसने उन्हें देवालयार्चनके निकट बाँध दिया । वहाँ भूतपूर्व रमणका जीव हिरण शान्तचित्त होकर मरणको प्राप्त हुआ और स्वर्गमें गया। दूसरा ( विनोदका जीव ) तिर्यंचगतिमें परिभ्रमण करके पल्लव देशके अन्तर्गत काम्पिल्य नगरमें धनदत्त
१. प ब श 'तद्गजपादेन' "मार्जारो जातः' इत्येतावान् पाठो नोपलभ्यते । २. कर्कटो, फ ब कक्कूटो कुर्कुटो,श कुर्कटो । ३. प कर्कटकः, फ कर्कुटकः, ब कक्कूटकः श. कुक्कटकः । ४. व कुक्कृटो । ५. फ विप्रबह्वा
सनुलकयोः । ६. श नारायणदत्ताजाराशक्ता । ७. फ महिषौ भिल्लंछौ,श महिषौ भिलौ। ८. फनाथराजेन । Jain Education International
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