Book Title: Punyasrav Kathakosha
Author(s): Ramchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 285
________________ २६४ पुण्यास्रवकथाकोशम् [६-२, ४३ : तत्र विभूत्या व्यवस्थाप्य स्वं यतं धनदं न्ययोजयत् प्रतिदिनं त्रिसंध्यं तद्गृहे पञ्चाश्चर्यकरणे । पद्मादिसरोनिवासिन्यः श्रीह्रीधृतिकीर्तिबुद्धिलक्ष्म्याख्या देव्यस्तीर्थकृन्मातुःशृङ्गारकृती, रुचकगिरिनिवासिन्यो विजया वैजयन्ता जयन्ता अपराजिता नन्दा नन्दोत्तरा आनन्दा नन्दिवर्धना चेत्यष्टौ पूर्णकुम्भाधाने, सुप्रतिष्ठा सुप्रणिधा सुप्रबोधा यशोधरा लक्ष्मीमती कीर्तिमती वसुंधरा चित्रा चेत्यष्टौ दर्पणधारणे, इला सुगा पृथ्वी पद्मावती काञ्चना नवमी सीता भद्रा चेत्यष्टौ गानेऽलम्बुषामित्रकेशी गुण्डरीकावारुणीदर्पणाश्रीह्रीधृतयश्चेत्यौ चामरधारणे, चित्राकाञ्चनचित्राशिरःसूत्रामाणयश्चेति चतस्रो दोपोज्ज्वालनेन, रुचकारुचकाशारुचकान्तिरुचकप्रभाश्चेति चतस्रश्तोर्थजातोत्सवकर्मणि रसवतीकरणे ताम्बूलदाने शय्यासनाधिकारे, अन्यनगनिवासिन्यः सुमाला-मालिनी-सुवर्णदेवी-सुवर्णचित्रा-पुष्पचूला-चूलावतीसुरा-त्रिशिरसादयो देव्यो यथानियोगं न्ययोजयत् । एवं सुखेन षण्मासेषु गतेषु मरुदेवी" पुष्पवती जसे, अनेकतीर्थोदककृतचतुर्थस्नाना स्वधा सुप्ता गजेन्द्रादिपोडशस्वप्नानपश्यत राज्ञो निरूपिते तेन तत्फले कथिते संतुष्टा सुखेन तस्थौ । आपाढकृष्णद्वितीयायां सोऽहमिन्द्रस्तदगर्भवतीणों देवाः संभय समागत्य गभोवतरणकल्याणं क्रत्वा स्वलोकंजम्मः अमरीकत इन्द्रने नाभिराज और मरुदेवी इन दोनोंको विभतिके साथ उस नगरके भीतर प्रतिष्ठित किया। साथ ही उसने उनके घरपर प्रतिदिन तीनों संध्याकालोंमें पंचाश्चर्य करने के लिये अपने यक्ष कुबेरको नियुक्त कर दिया। उसने पद्म और महापद्म आदि तालाबोंमें निवास करनेवाली श्री, ही, धृति, कीर्ति, बुद्धि और लक्ष्मी नामकी देवियोंको तीर्थंकरकी माता के शृङ्गारकार्यमें; रुचक पर्वतपर रहनेवाली विजया, वैजयन्ता, जयन्ता, अपराजिता, नन्दा, नन्दोत्तरा, आनन्दा और नन्दिवर्धना इन आठ देवियों को पूर्ण कलशके धारण करने में; सुप्रतिष्ठा, सुप्रणिधा, सुप्रबोधा, यशोधरा, लक्ष्मीमती, कीर्तिमती, वसुंधरा और चित्रा इन आठ देवियों को दर्पणके धारण करनेमें; इला, सुरा, पृथ्वी, पद्मावती, कांचना, नवमी, सीता और भद्रा इन आठ देवियों को गानों; अलंबुषा, मित्रकेशी, पुण्डरीका, वारुणी, दर्पणा, श्री, ही और धृति इन आठ देवियोंको चँवर धारण करनेमें; चित्रा, कांचनचित्रा, शिरःसूत्रा और माणि इन चार देवियों को दीपक जलाने में रुचका, रुचकाशा, रुचकान्ति और रुचकप्रभा इन चार देवियों को तीर्थकरका जन्मोत्सव कर्म करने, रसोई करने, पान देने एवं शय्या व आसनके अधिकारमें; तथा अन्य पर्वतोपर रहनेवाली सुमाला, मालिनी, सुवर्णदेवी, सुवर्णचित्रा, पुष्पचूला, चूलावती, सुरा और त्रिशिरसा आदि देवियों को भी नियोगके अनुसार कार्यों में नियुक्त किया । इस प्रकार सुखपूर्वक छह महिनोंके बीत जानेपर मरुदेवी पुष्पवती हुई। उस समय उसने अनेक तीर्थोके जलसे चतुर्थ स्नान किया। वह जब पतिके साथ शय्यापर सोयी हुई थी तब उसने हाथी आदि सोलह स्वप्नोंको देखा । इनके फलके विषयमें उसने राजासे पूछा । तदनुसार नाभिराजने उसके लिये उन स्वप्नों का फल बतलाया, जिसे सुनकर वह बहुत सन्तुष्ट हुई। इस प्रकार सुखसे स्थित होनेपर आषाढ़ कृष्णा द्वितीयाके दिन वह अहमिन्द्र देव उसके गर्भ में अवतीर्ण हुआ। तब देवोंने १. ब विजय। २. फ ब वर्धनाश्चेत्यष्टौ। ३. व 'प्रबोधा' नास्ति। ४. ब लक्ष्मीमती वसुंधरा कीर्तिमती वसुंधरो चित्रा। ५. फ चित्राश्चेत्यष्टौ। ६.फ भद्राश्चेत्यष्टौ। ७. बचियात्रिशिर:स्तत्रामानयश्चेति । ८. ज प श सह्यासना । ९. प फ श अन्धनाग” व अन्यानग। १०.फ श न्ययोजयन । ११. ज प श मरुद्देवी। १२. ब ययुः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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