Book Title: Punyasrav Kathakosha
Author(s): Ramchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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: ६-१५, ५६] ६. दानफलम् १५
३१९ कुटुम्बी तं हलसंनिधौ निधाय पात्रपत्रिकाथै पत्राण्यानेतुं ययौ। तस्मिन् गते कुमारो हलमुष्टिं धृत्वा बलीवर्दी खेटयति स्म । तदा हलमुखेन भूमेरीषद्विदारणे सति स्वर्णभृतः ताम्रकलशो निर्गतः। तं दृष्ट्वा पूर्यते मे एतद्विज्ञानाभ्यासेनायं यद्यमुं पश्येत्तर्हि मेऽनर्थ कुर्यादिति मत्वा मृत्तिकया तं तथैव पिधाय तूष्णी स्थितः। कुटुम्बी पत्राण्यानीय गर्तस्थं नीरकलशं दध्योदनं चाकृष्य तत्पादौ प्रक्षाल्य पत्राणि च, तेषु तस्य भोक्तं परिविवेष । स भुक्त्वा राजगृहमार्ग पृष्ट्वा तेन ययौ । स पामरः कृषस्तं ददर्श, विस्मयं ययौ। अहो तस्येदं द्रव्यं मम ग्रहीतुमनुचितम् इति तत्समर्पणार्थ तत्पृष्ठे लग्नः । कुमारस्तदागमं विलोक्य तरोरध उपविष्टः । स आगत्य तं ननामोवाच- हे नाथ, स्वद्रव्यं विहाय किमित्यागतोऽसि । वैश्योऽवताहं किं द्रव्यणागतः, एवमेवागतस्त्वया दत्तो ग्रासो मे द्रव्यं कथं संजातम् । उवाच पामरो मे पितामहः पिताहं चेदं क्षेत्रमाकार्षीमः', कदाचिन्न निर्गतम् , त्वय्यागते निर्गतमिति त्वदीयं तत्। कुमारोऽभणत्- भवतु मदीयम् , मया तुभ्यं दत्तम् , यत्नेन भुनग्धि त्वम् । तदा 'प्रसादः' इति भणित्या नाथैतन्नाम्नि ग्रामे एतन्नामाहं पामरो यदा मया प्रयोजनं स्यात्तदा मे दही और भात लाया हूँ, खाओगे क्या ? यह सुनकर कुमार बोला कि खा लूंगा। तब वह किसान कुमारको हलके पास बैठाकर पत्तलके लिए पत्तों को लेने चला गया। उसके चले जानेपर कुमारने हलके मुठियेको पकड़कर दोनों बैलों को हाँक दिया। उस समय हलके अग्रभाग (फाल ) से भूमिके कुछ विदोर्ण होनेपर सोनेसे भरा हुआ एक ताँबेका घड़ा निकला । उसे देखकर कुमारने विचार किया कि मेरे इस नवीन विज्ञानके अभ्याससे वश हो, यदि वह किसान इसे देख लेता है तो मेरा अनर्थ कर डालेगा। ऐसा सोचता हुआ वह उसे मिट्टीसे उसी प्रकार ढककर चुपचाप बैठ गया। इतने में किसान पत्तोंको लेकर वापस आ गया। तब उसने गड्ढे में रखे हुए पानीके घड़ेको तथा दही-भातको उठाया और फिर उसके पाँवों व पत्तोंको धोकर उन पत्तोंमें उसे परोस दिया। इस प्रकार कुमारने भोजन करके उससे राजगृहके मार्गको पूछा और उसी मार्गसे आगे चल पड़ा। उधर किसानने जब फिर जोतना शुरू किया तब उसे उस घड़ेको देखकर बहुत आश्चर्य हुआ। तब उसने विचार किया कि यह द्रव्य तो उस कुमारका है, उसका ग्रहण करना मेरे लिये योग्य नहीं है। बस यही सोचकर वह किसान उस सुवर्णसे भरे हुए घड़ेको देने के लिए कुमारके पीछे लग गया । धन्यकुमारने जब उसको अपने पीछे आते हुए देखा तब वह एक वृक्षके नीचे बैठ गया। किसानने आकर नमस्कार करते हुए उससे कहा कि हे नाथ! आप अपने धनको छोड़कर क्यों चले आये हैं ? यह सुनकर वैश्य (धन्यकुमार ) बोला कि क्या मैं धनके साथ आया था ? नहीं, मैं तो यों ही आया था। तुमने मुझे भोजन दिया। इससे वह द्रव्य मेरा कैसे हो गया ? इसपर किसानने कहा कि मेरे आजा, पिता और मैं स्वयं इस खेतको जोतते आ रहे हैं, किन्तु हमें यहाँ कभी भी द्रव्य नहीं प्राप्त हुआ है। किन्तु आज तुम्हारे आनेपर वह द्रव्य वहाँ निकला है, इसलिए यह तुम्हारा ही है। यह सुनकर कुमारने कहा कि अच्छा उसे मेरा ही धन समझो 'परन्तु मैं उसे तुम्हारे लिये देता हूँ, तुम उसका प्रयत्नपूर्वक उपभोग करो। इसपर किसानने 'यह आपकी कृपा है' कहकर उसे स्वीकर कर लिया। तत्पश्चात् किसान बोला कि हे स्वामिन् ! मैं अमुक गाँवमें रहनेवाला अमुक नामका किसान हूँ, जब
१. ब क्षेत्रमार्षीमः। Jain Education International
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