Book Title: Punyasrav Kathakosha
Author(s): Ramchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 357
________________ पुण्यानवकथाकोशम् [६-१६, ५७ : निकटमागच्छति तावत्सा दिव्यदेहा गगनेऽस्थादवदच्च कथमहं त्वद्वनिता। तदा सोऽतिविस्मयं जगाम, पप्रच्छ 'देवि, का त्वम्' इति । तदा तयात्मस्वरूपं निरूप्योक्तमिमौ पुत्रौ गृहीत्वा गृहं गच्छ, सुखेन तिष्ठ । सोऽब्रवीदिदानी मे गृहेण प्रयोजनं' नास्ति । त्वद्गतिरेव मे गतिरित्यहमपि तत्र पतित्वा मरिष्यामि । सावोचदेवं सति वालावपि मरिष्यतस्ततस्त्व. मिमौ गृहीत्वा गृहं याहि । तदा सोऽहमेव जानामोति भणित्वा स्वगृहं जगाम । सगोत्रजानां तौ समय जिनधर्मप्रभावनां कृत्वा वहन् द्विजादिकान् स्ववनितात्रिदशगतिप्राप्तिनिरूपणेनाणुव्रत-महाव्रताभिमुखान् कृत्वा स्वयं गत्वाज्ञानित्वात् तदा पपात ममारास्त्रि कायाः सिंहो वाहनो देवो जज्ञे। तो शुभंकर-प्रभंकरौं महाजैनो भूत्वा बहुकालं चतुर्विधगृहस्थधर्म प्रतिपाल्य श्रीनेमिजिनसमवसरणे दोक्षितौ, विशिष्टतपोविधानेन केवलिनो भूत्वा विहृत्य मोतमुपजग्मतुः । इति पराधीनापि भर्त भोत्या व्य प्रधोरपि ब्राह्मणो सकृन्मुनिदानेन देवी बभूवान्यः स्वतन्त्रः सर्वदा तद्दानशीलः किं न स्यादिति ॥१६।। किया । वह बोला कि तुम ही मेरी स्त्रो हो। यह कहते हुए वह उसके वस्त्रको पकड़नेके विचारसे जैसे ही उसके बहुत निकटमें आया वैसे ही वह यक्षी दिव्य शरीरके साथ ऊपर आकाशमें जाकर स्थित हो गई और बोली कि मैं कैसे तुम्हारी स्त्री हूँ। इस दृश्यको देखकर सोमशर्माको बहुत आश्चर्य हुआ। तब उसने उससे पूछा कि हे देवी ! तो फिर तुम कौन हो ? इसपर उसने अपना पूर्व वृत्तान्त कह दिया । अन्तमें उसने कहा कि अब तुम इन दोनों पुत्रोंको लेकर घर जाओ और सुखसे स्थित रहो । यह सुनकर वह बोला कि अब मुझे घर जानेसे कुछ प्रयोजन नहीं रहा है। जो अवस्था तेरी हुई है वही अवस्था मेरी भी होनी चाहिये, मैं भी वहाँ गिरकर मरूँगा । इसपर यक्षी बोली कि ऐसा करनेपर ये दोनों बालक भी मर जावेंगे। इसलिए तुम इन दोनों बालकों को लेकर घर जाओ। तब वह 'यह तो मैं भी जानता हूँ' कहकर अपने घर चला गया । वहाँ जाकर उसने उन दोनों बालकोंको अपने कुटुम्बी जनोंके लिए समर्पित करके जैन धर्मकी बहुत प्रभावना की । साथ ही उसने धर्मक प्रभावसे अपनी स्त्रीके यक्षी हो जानेक वृत्तान्तको सुनाकर बहुत-से ब्राह्मणादिकोंको अणुव्रत और महाव्रत ग्रहण करनेके सन्मुख कर दिया। किन्तु वह स्वयं उसी ऊर्जयन्त पर्वतके ऊपर जाकर अज्ञानतावश उसी दरीमें जा गिरा और इस प्रकारसे मरकर उस अम्बिका देवीका वाहन देव सिंह हुआ। तत्पश्चात् वे दोनों शुभंकर और प्रभंकर नामके पुत्र दृढ़ जैनी हुए। उस समय उन दोनोंने बहुत काल तक चार प्रकारके गृहस्थधर्मका परिपालन करके भगवान् नेमि जिनेन्द्र के समवसरणमें दीक्षा ग्रहण कर ली । इस प्रकार विशिष्ट तप करनेसे उन्हें केवलज्ञानकी प्राप्ति हो गई। तब वे केवलीके रूपमें विहार करके मोक्षको प्राप्त हुए। इस प्रकार पराधीन और पतिके भयसे विकल भी वह ब्राह्मणी जब एक बार ही मुनिको दान देकर उसके प्रभावसे देवी हुई है तब भला स्वतन्त्र और निरन्तर दान देनेवाला दूसरा भव्य जीव क्या अपूर्व वैभवको नहीं प्राप्त होगा ? अवश्य होगा ॥१६॥ १.श मे गहेण मे प्रयोजनं । २. ब हमे । ३. ब गत्वाजानित्वात् श गत्वाज्ञानत्वम् । ४. प ममारांविकया: सिंहो वाहनो ब ममार अंबिका स्वापिकाया: सिंहगाहनो शममाराविकंयाः मिहोवाहनो। ५. ब-प्रतिपाठोऽयम् । श शुभंकरविभंकरो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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