Book Title: Punyasrav Kathakosha
Author(s): Ramchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 358
________________ ग्रन्धकार-प्रशस्तिः श्रीमन्तश्चारुगोत्रा जितरिपुगणकाः शक्तितेजोऽधिकाश्च भूत्वा ते मारसौम्या वरयुवतिगणा ज्ञानविज्ञानदताः । पद्यैर्द्विज्ञानसंख्यैर्द दितृफलकथां भावयन्त्यर्थतो ये भक्त्वा संसारसौख्यं जगति सुविदितं मुक्तिलाभं लभन्ते ॥१६॥ इति पुण्यात्रवाभिधाने ग्रन्थे केशवनन्दिदिव्यमुनिशिष्यरामचन्द्रमुमुक्षविरचिते दानफलव्यावर्णनाः पोडशवृत्ताः समाप्ताः ॥६॥ यो भव्याजदिवाकरो यमकरो मारेभपञ्चाननो नानादुःखविधायिकर्मकुभृतो वज्रायते दिव्यधीः । यो योगीन्द्रनरेन्द्रवन्दितपदो विद्यार्णवोत्तीर्णवान् ख्यातः केशवनन्दिदेवयतिपः श्रीकुन्दकुन्दान्वय. ॥१॥ शिप्योऽभूत्तस्य भव्यः सकलजनहितो रामचन्द्रो मुमुक्षआत्या शब्दापशब्दान् सुविशदयशसः पद्मनन्द्याह्वयाद्वै। वन्द्याद वादोभसिंहात् परमयतिपतेः सोऽव्यधाद्भव्यहेतो ग्रन्थं पुण्यास्रवाख्यं गिरिसमितिमितै ५७ 'दिव्यपद्यैः कथाथैः ॥२॥ जो भव्य जीव ज्ञानकी द्विगुणी संख्या [(५+३) x २] रूप सोलह पद्योंके द्वारा दानके फल की कथा का परमार्थसे विचार करते हैं वे संसारमें लक्ष्मीवान् , कुलीन, शत्रुसमूहके विजेता, अधिक बलशाली, तेजस्वी, कामदेवके समान सुन्दर, उत्तम युवतियोंके समूहसे वेष्टित तथा ज्ञानविज्ञानमें दक्ष होकर प्रसिद्ध संसारके सुखको भोगते हैं और तत्पश्चात् अन्तमें मुक्तिको भी प्राप्त करते हैं ।। १६॥ इस प्रकार के शवनन्दी दिव्य मुनिके शिष्य रामचन्द्र मुमुक्षु द्वारा विरचित पुण्यास्रव नामक ग्रन्थमें दानके फलको बतलानेवाले सोलह पद्य समाप्त हुए ॥६॥ ___ यहाँ आचार्य कुन्दकुन्दकी वंशपरम्परामें दिव्य बुद्धिके धारक जो केशवनन्दी देव नामके प्रसिद्ध यतीन्द्र हुए हैं वे भव्य जीवांरूप कमलोंके विकसित करने के लिए सूर्य समान, संयमके परिपालक, कामदेवरूप हाथीके नष्ट करनेमें सिंहके समान पराक्रमी और अनेक दुःखोंको उत्पन्न करनेवाले कर्मरूपी पर्वतके भेदनेके लिए कठोर वज्र के समान थे। बड़े-बड़े ऋषि और राजामहाराजा उनके चरणोंकी वन्दना करते थे। वे विद्यारूप समुद्र के पार पहुँच चुके थे अर्थात् समस्त विद्याओंमें निष्णात थे ॥१॥ __ उनका भव्य शिष्य समस्त जनों के हितका अभिलाषी रामचन्द्र मुमुक्षु हुआ। उसने पद्मनन्दी नामक श्रेष्ठ मुनीन्द्र के पासमें शब्द और अपशब्दों ( अशुद्ध पदों)को जानकर -- व्याकरण शास्त्रका अध्ययन करके-कथाके अभिप्रायको प्रगट करनेवाले गिरि (७) और समिति (५) के बराबर संख्यावाले अर्थात् सत्तावन पद्योंके द्वारा भव्य जीवोंके निमित्त इस पुण्यास्रव नामक ग्रन्थको रचा १. पब श मारसाम्या। २. व श ज्ञानदक्षाः। ३.जज्ञास । ४. ब यंत्यथिनो। ५. शत्विा शब्दान । ६. ब मिती दिव्य । ज ५७ संखेयं पर्व लिखिता पश्चाच्च निष्काषिता सा। ४३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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