Book Title: Punyasrav Kathakosha
Author(s): Ramchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 339
________________ पुण्यानकथाकोशम् [६-१५, ५६ : ततस्तद्गृह राजपार्श्वे महाप्रहेण याचितं प्राप्य प्रविश्य निधीन गृहोत्या त्यागादिकं कुर्वन् राजमान्यः स्वकीर्त्या व्यापितजगत्त्रयः सुखेन स्थितः । तद्रपाद्यतिशयमालोक्य कश्चिदिभ्यो धनपालस्यावदत्-मत्पुत्रीं धन्यकुमाराय दास्यामि । धनपालोऽबूत- ज्येष्ठाय प्रयच्छ । स बभाण-न, यदाकदाचिद्धन्यायैव दास्यामि, नान्यस्मै। तदवधार्य ते ज्येष्ठभ्रातरस्तं द्वेष्टुं लग्नाः। स न जानाति । एकदा तैरुधानस्थां महावापिकां क्रीडितुं नीतः। स तस्सटे उपविश्य तत्क्रीडामवलोकयंस्तस्थौ । आगत्यैकेन वापिकायां निर्लोठितः णमो अरिहंताणं' इति विजल्पन् पपात । ते तस्योपरि पाषाणादिकं निक्षिप्य 'मृतः' इति संतोषेण जग्मुः। इतः स कुमारः पुण्यदेवताभिस्तज्जलनिर्गमरन्ध्रण निःसारितः, पुरादहिः निर्जगाम, तदसहिष्णुत्वमवगम्य देशान्तरं चचाल । गच्छन्नेकस्मिन् क्षेत्रे हलं खेटयन्तं कृषीवलं लुलोके, 'चिन्तयांचकार- सर्वाणि विज्ञानानि मयाभ्यस्तानि, इदमपूर्वम् , तन्निकटं गत्वा विलोकयन् तस्थौ । पामरस्तद्रपं विलोक्य विस्मयं जगामोक्तवांश्चभो प्रभोऽहं शुद्धः कुटुम्बी, मया दध्योदन आनीतोऽस्ति, भोक्ष्यसे। कुमारोऽब्रूत-भोक्ष्ये । चाण्डालके हाथसे धन्यकुमारन लिया । तत्पश्चात् वह उस पत्रको पढ़कर राजाके पास गया । वहाँ उसने आग्रहपूर्वक राजासे वसुमित्र सेठके घरको माँगा। तदनुसार वह उसकी स्वीकृति पाकर सेठ वसुमित्रके उस घरमें गया और उन निधियोंको प्राप्त करके दानादि सत्कार्योमें प्रवृत्त हुआ। इससे उसने राजमान्य होकर अपनी कीतिसे तीनों लोकोंको व्याप्त कर दिया । इस प्रकार वह सुखसे कालयापन करने लगा। धन्यकुमारकी लोकातिशायिनी सुन्दरता आदिको देखकर कोई धनिक धनपालके पास आया व उससे बोला कि मैं अपनी पुत्री धन्यकुमारके लिए दूंगा । इसपर धनपालने कहा कि तुम उसे मेरे बड़े पुत्रके लिए दे दो। यह सुनकर आगन्तुक सेठने कहा कि नहीं, जिस किसी भी समयमें सम्भव हुआ मैं अपनी उस पुत्रीको धन्यकुमारके लिए ही दूंगा, अन्य किसी भी कुमारके लिए मैं उसे नहीं देना चाहता हूँ । उसके इस निश्चयको देखकर धन्यकुमारके वे सब बड़े भाई उससे द्वेष करने लगे। परन्तु यह धन्यकुमारको ज्ञात नहीं हुआ। एक समय वे सब उसे उद्यानके भीतर स्थित वावड़ीमें क्रीड़ा करनेके लिए ले गये। धन्यकुमार वहाँ वावड़ीके किनारे बैठकर उनकी क्रीडाको देखने लगा। इसी बीच किसीने आकर उसे वावड़ीमें ढकेल दिया। तब वह णमो अरिहंताणं' कहता हुआ उस वावड़ीमें जा गिरा। तत्पश्चात् उन सबने उसके ऊपर पत्थर आदि फेंके । अन्तमें वे उसे मर गया जानकर सन्तोषके साथ घर चले गये । इधर पुण्य देवताओंने उसे जलके निकलनेकी नाली द्वारा उस बावड़ीसे बाहर निकाल दिया। तब उसने नगरके बाहर जाकर अपने उन भाइयोंकी असहनशीलतापर विचार किया । अन्तमें वह अब यहाँ अपना रहना उचित न समझकर देशान्तरको चला गया। मार्गमें जाते हुए उसने एक खेतपर हलसे भूमिको जोतते हुए किसानको देखा। उसे देखकर धन्यकुमारने विचार किया कि मैंने सब विज्ञानोंका अभ्यास किया है, परन्तु यह तो मुझे अपूर्व ही दिखता है । यही विचार करता हुआ वह उस किसानके पास गया और उसकी भूमि जोतनेकी क्रियाको देखने लगा। उसके सुन्दर रूपको देखकर किसानको बहुत आश्चर्य हुआ। वह धन्यकुमारसे बोला कि हे महाशय ! मैं शुद्ध किसान हूँ। मैं घरसे १. व 'ते' नास्ति । २. क्रीडतुं । ३. ज ब श नमो। ४. श लुलोके ददर्श चिन्त । ५. फ प्रभोऽहं श भोऽहं। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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