Book Title: Punyasrav Kathakosha
Author(s): Ramchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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: ६–१५, ५६ ]
६. दानफलम् १५
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गलितसर्वशरीरो मुमूर्षुर्यावदास्ते' तावत् श्रेष्ठी समागतः तं विलोक्यायं किमित्यागतो न मृत इति तस्योपरि रौद्रध्यानेन युतो मृत्वा सप्तमावनिं जगाम । ततः स्वयंभूरमणोदधौ महामत्स्यो जज्ञे । ततः पुनः सप्तमपृथ्वीं गतः, इति षट्षष्टिसागरोपमकालं नरकदुःखमनुभूय ततस्त्रस-स्थावरादिषु भ्रमित्वाकृतपुण्योऽभूत् ।
सोsकृतपुण्य एकदा सुकृतपुण्यस्य चणकक्षेत्रं जगामोवाच- हे सुकृतपुण्याहं ते चणकानुत्पाटयिष्यामि, मह्यं किं दास्यसि । तदा तं विलोक्य सुकृतपुण्य एतत्पितुः प्रसादेनाहमेवंविधो जातोऽस्य मे प्रेषणकारणमभूद्विधिवशादिति दुःखो भूत्वा स्वपोतान्निष्कानाकृष्य तस्य दत्तवान् । ते तद्धस्ते पतिता श्रङ्गारा अजनिषत । तदाकृतपुण्यो बभाण- सर्वे -
चणकान् प्रयच्छसि मह्यमङ्गारकान् । तदनु सुकृतपुण्य उवाच - -मदीयानङ्गारान् प्रयच्छ, यावन्नेतुं शक्तोऽसि तावन्तश्चणकान् नय, इत्युक्ते स स्ववस्त्रे पोटलं बन्धयित्वा चणकान् नीतवान् । ते च सच्छिद्रवस्त्रेऽर्धा उद्वरितास्तानवलोक्य मात्रोदितम् - कस्मादिमानानीतवान् । तेन स्वरूपे निरूपिते सा 'मद्भृत्यस्य भृत्यत्वं ते जातम्' इति दुःखिता जज्ञे । ततस्तानेव पाथेयं कृत्वा मातापुत्रौ तस्मान्निर्गत्यावन्तीत्रिषये सीसवाकग्रामे बलभद्रग्रामपतिगृहं प्राप्य
जिनप्रतिमाओं की चोरीसे उपार्जित पापके प्रभावसे उसका समस्त शरीर कोढ़से गलने लगा । इससे वह मरणासन्न हो गया । इसी अवसरपर वह धनपति सेठ भी द्वीपान्तरसे वापस आ गया। उसे देखकर वह मरणोन्मुख कपटी ब्रह्मचारी उसके सम्बन्धमें विचार करने लगा कि यह क्यों यहाँ आ गया, वहीं पर क्यों न मर गया । इस प्रकार रौद्र ध्यानके साथ मरकर वह सातवें नरक में गया । वहाँसे निकलकर वह स्वयम्भुमरण समुद्र के भीतर महामत्स्य उत्पन्न हुआ । तत्पश्चात् वह फिर से भी उसी सातवें नरकमें जा पहुँचा । इस प्रकार वह छ्यासठ सागरोपम काल तक नरकके दुखको भोगकर तत्पश्चात् त्रस व स्थावर आदि पर्यायोंमें परिभ्रमण करता हुआ अन्तमें अकृतपुण्य हुआ । एक समय वह अकृतपुण्य सुकृतपुण्यके चनोंके खेतपर जाकर उससे बोला कि हे सुकृतपुण्य ! मैं तुम्हारी चनोंकी फसलको काट देता हूँ, तुम मुझे क्या दोगे ? उस समय उसको देखकर सुकृतपुण्यने विचार किया कि जिसके पिता के प्रसादसे मैं इस प्रकारका गाँवका प्रमुख हुआ हूँ वही भाग्यवश इस समय मेरी आज्ञाका कारण बन गया है- मुझसे अपेक्षा कर रहा है। इस प्रकार से दुखी होकर सुकृतपुण्य अपनी थैली से दीनारों को निकाल कर उसके लिये दिया । परन्तु वे उसके हाथमें पहुँचते ही अंगार बन गईं । तब अकृतपुण्य उससे बोला कि तुम सबके लिये तो चने देते हो और मेरे लिये अंगारे | इसपर सुकृतपुण्य बोला कि मेरे अंगारोंको मुझे वापस दे दो और जितने तुमसे ले जाते बने उतने चने तुम ले जाओ । सुकृतपुण्यके इस प्रकार कहने पर वह अपने वस्त्रमें पोटली बाँधकर चनोंको घरपर ले गया । परन्तु वे छेदयुक्त वस्त्रसे गिरकर आधे ही शेष रह गये थे । उनको देखकर माताने अकृतपुण्यसे पूछा कि तू इन चनोंको कहाँ से लाया है ? इसपर अकृतपुण्यने उसे बतला दिया कि मैं इन चनोंको सुकृतपुण्यके पाससे लाया हूँ । यह सुनकर उसकी माता ने कहा कि जो सुकृतपुण्य किसी समय मेरा सेवक था उसीकी दासता आज तेरे लिये करनी पड़ी | ऐसा विचार करते हुए उस समय उसे बहुत दुःख हुआ । तत्पश्चात् वह उन्हीं चनों को पाथेय ( मार्गमें खानेके योग्य नाश्ता ) बनाकर पुत्रके साथ उस नगरसे निकल पड़ी और
१. फ शरीरमुमूर्षुर्याव । २. ब रचणकादिकान् । ३. ब वस्त्रे वर्द्धा ओरिता ।
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