Book Title: Punyasrav Kathakosha
Author(s): Ramchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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२७६ पुण्यात्रवकथाकोशम्
[६-२,४३ : सेवां मन्यन्ते इति न प्रविशतीति । श्रुत्वा बहिरावास्य तदन्तिकं राजादेशाः प्रेषिताः । बाहुबलिनं विनान्ये तानवधार्य पितसमीपे दीक्षिताः। बाहुबलिनोक्तं मम बाणदर्भशय्यायां शयितश्चेत्करुणया किंचिद्दीयते, नान्यथा । ततो युद्धार्थी निर्गत्य स्वदेशसीम्नि स्थितः । इतरोऽपि रुषागतः । अभ्यर्णयोः सैन्ययोः प्रधानैदृष्टि जल-मल्लयुद्धानि कारितो। बाहुबलो युद्धत्रयेऽपि चक्रिणं जित्वा तं प्रणम्य क्षमितव्यं विधाय स्वनन्दनं महाबलिनं तस्य समय स्वयं भरतेन निवार्यमाणोऽपि कैलासे वृषभसमीपं गत्वा दीक्षितः। कतिपयदिनैः सकलागमं परिज्ञायैकविहारी जातोऽटव्यां प्रतिमायोगे स्थितः । वल्ली वल्मोकादिभिर्वेष्टितं तं वीक्ष्य वल्यादिकं विद्याधर्योऽपसारितवन्त्यस्तद्योगसंवत्सरावसाने भरतो वृषभजिनसमवसृति गच्छन्नद्राक्षीजिनं नत्वा पृष्टवान् 'बाहुबलिमुनेः केवलं किमिति नोत्पद्यते' इति । जिन पाह-'अहो, त्यक्तायामपि चक्रिणोऽवनौ तिष्ठामीति तन्मनसो मनाग मानकषायो न गच्छतीति केवलं नोत्पद्यते। श्रत्वा चक्री तत्र जगाम, तत्वादयोलग्नोऽनेकविन्यालापैस्तत्कषायमपसारयांचकार। ततस्तदैव स केवली बभूव स्वयोग्यसमवसरणादिविभूतिभाक् । सेवाको स्वीकार नहीं करते हैं, इसीलिये यह चक्ररत्न नगरके भीतर प्रविष्ट नहीं हो रहा है। यह सुनकर भरत चक्रवर्तीने सेनाको नगरके बाहिर ठहरा दिया और भाइयों के समीपमें दूतोंको भेज दिया। तब बाहुबलीको छोड़कर शेष भाइयोंने भरतकी आज्ञाके विषयमें विचार करके पिता ( आदिनाथ भगवान् ) के समीपमें दीक्षा धारण कर ली। परन्तु बाहुबलीने दूतसे कह दिया कि यदि भरत मेरे बाणोंरूप दर्शों (कुशों-कासों) की शय्यापर सोता है तो मैं दयासे कुछ दे सकता हूँ, अन्यथा नहीं। तत्पश्चात् वह युद्ध की अभिलाषासे निकल कर अपने देशकी सीमापर स्थित हो गया। उधर भरत भी बाहुबलके उत्तरसे क्रोधको प्राप्त होकर युद्ध करनेके लिये आ गया। इस प्रकार दोनों सेनाओंके सम्मुख होनेपर मन्त्रियोंने उन दोनोंके बीचमें दृष्टियुद्ध, जल युद्ध और मल्लयुद्ध इस प्रकारके युद्धोंको निर्धारित किया। सो बाहुबलीने इन तीनों ही युद्धोंमें चक्रवर्ती भरतको पराजित कर दिया। फिर भी उसने भरतको नमस्कार करके उससे क्षमा करायी। इस घटनासे बाहुबलीको वैराग्य हो चुका था। इससे उसने अपने पुत्र महाबलीको भरतके आधीन करके स्वयं उसके द्वारा रोके जानेपर भी कैलास पर्वतके ऊपर जाकर ऋषभ जिनेन्द्रके समीपमें दीक्षा ग्रहण कर ली। वह कुछ ही दिनोंमें समस्त आगममें पारंगत होकर एकविहारी हो गया । वह किसी वनमें जब प्रतिमायोगसे स्थित हुआ तब उसका शरीर बेलों और बांबियोंसे घिर गया । उसकी इस अवस्थाको देखकर कभी-कभी विद्याधरियाँ उन बेलों आदिको हटा दिया करती थीं । इस प्रकारसे पूरा एक वर्ष बीत गया । अन्तमें जब भरतने ऋषभ जिनेन्द्र के समवसरणमें जाते हुए बाहुबलीको ऐसे कठिन प्रतिमायोगमें स्थित देखा। तब उसने जिनेन्द्रको नमस्कार करके पूछा कि बाहुबली मुनिको अब तक केवलज्ञान क्यों नहीं उत्पन्न हुआ है ? इस प्रश्नको सुनकर जिन भगवान्ने उत्तर दिया कि यद्यपि बाहुबलीने पृथिवीका परित्याग कर दिया है, फिर भी 'मैं भरत चक्रवर्तीकी पृथ्वीपर स्थित हूँ' यह किंचित् मानकषाय उसके मनमें अभी तक बनी हुई है। वह कषाय जब तक नष्ट नहीं होती है तब तक उसे केवलज्ञान उत्पन्न नहीं होता है । यह सुनकर भरत चक्रवर्ती बाहुबली मुनिके समीप गये और उनके चरणों में गिर गये। फिर उन्होंने विनयसे परिपूर्ण सम्भाषणके द्वारा बाहुबलीकी उस कषायको दूर कर दिया। तत्पश्चात् बाहुबली मुनिको उसी
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