Book Title: Punyasrav Kathakosha
Author(s): Ramchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 329
________________ ३०८ पुण्यात्रवकथाकोशम् [ ६-९, ५० : विदेहविजयार्धशशिपुरेशरत्नमालेरपत्यं सूर्यो' जातः । एकदा रत्नमालिः सिंहपुराधिपवज्रलोचनस्योपरि चटितः। अत्र प्रस्तावे देवेनैकेन निषिद्धः। किमिति पृष्टे देवोऽवोचत्- अस्मिन् विजयाधं गान्धारनगरीशश्रीभूतेः पुत्रः सुभूतिरभूत् । मन्त्री उभयमन्युः संजातः । राज्ञा कमलगर्भभट्टारकसकाशे गृहीतानि व्रतानि मन्त्रिणा नाशितानि । मन्त्री मृत्वा हस्ती संजातः । स च राज्ञा पट्टवर्धनः कृतः। स हस्ती च कमलगर्भमुनेर्दशनेन जातिस्मरो भूत्वा व्रतान्यादाय सुभूति-योजनगन्ध्योः पुत्रोऽरिंदमोऽभूत् । तन्मुनि समीपे तपसाहं शतारे जातः । श्रीभूतिम॒त्वा मन्दरारण्ये मृगो जातः। काम्भोजविषये भिल्ल कलिंजमो भूत्वा शर्करायामुत्पन्नो मया संबोधितः सन्निदानी रत्नमालिर्जातोऽसीति । श्रुत्वानन्दाय राज्यं दत्त्वा रत्नतिलकमुनिनिकटे सूर्यजेन सह प्रववाज । शुक्र उत्पद्य तस्मादागत्य सर्यजचरस्त्वम् , इतरो जनकः, अरिंदमचरः शतारादागत्य कनकः संजातः। सोऽभयघोष. स्तपसा त्रैवेयके उत्पद्य तस्मादागत्य वयं संजाता इति निरूपिते निशम्य मुनि वन्दित्वा स्वपुरं प्रविष्टः । अपराजितादिपट्टमहादेवीभी रामादिपुत्रैरन्यैश्च बन्धुभिर्महाविभूत्या राज्यं कुर्वन् अपरविदेहमें स्थित विजयाध पर्वतके ऊपर शशिपुरके राजा रत्नमालिके सूर्य (सूर्यज) नामका पुत्र हुआ। ___एक समय रत्नमालिने सिंहपुरके राजा वज्रलोचनके ऊपर चढ़ाई की। किन्तु इस बीचमें उसे एक देवने ऐसा करनेसे रोक दिया। इसका कारण पूछनेपर वह देव बोला- इस विजया पर्वतके ऊपर स्थित गान्धारपुरके राजा श्रीभूतिके एक सुभूति नामका पुत्र था। उस राजाके मन्त्रीका नाम उभयमन्यु था। राजा श्रीभूतिने कमलगर्भ भट्टारकके समीपमें व्रतोंको ग्रहण किया था । किन्तु उस मन्त्रीके प्रभावमें आकर वह उनका पालन नहीं कर सका और वे यों ही नष्ट हो गये । इस पापके प्रभावसे वह मन्त्री मरकर हाथी हुआ । उसे राजाने पट्टवर्धन (मुख्य हाथी) बनाया। उक्त हाथीको कमलगर्भ मुनिके दर्शनसे जातिस्मरण हो गया। तब उसने व्रतोंको ग्रहण कर लिया। वह मरकर राजा सुभूति और रानी योजनगन्धीके अरिन्दम नामका पुत्र हुआ। उसने उन मुनिके समीपमें दीक्षा ले ली। इस प्रकार तपके प्रभावसे वह मरकर शतार स्वर्गमें देव हुआ, जो मैं हूँ । उधर वह श्रीभूति राजा मरकर मन्दरारण्यमें मृग हुआ। तत्पश्चात् वह काम्भोज देशमें कलिंजम भील हुआ। वह समयानुसार मरकर शर्कराप्रभा पृथिवी (दूसरा नरक) में नारकी उत्पन्न हुआ। उसे मैंने जाकर प्रबोधित किया। इससे वह प्रबुद्ध होकर उक्त पृथिवीसे निकला और तुम रत्नमालि हुए हो। इस प्रकार उक्त देवसे अपने पूर्वभवोंका वृत्तान्त सुनकर वह रत्नमालि आनन्दके लिए राज्य देकर सूर्यज पुत्रके साथ रत्नतिलक मुनिके समीपमें दीक्षित हो गया। वह मरकर तपके प्रभावसे शुक्र कल्पमें देव उत्पन्न हुआ। साथमें वह सूर्यज भी उसी कल्पमें देव हुआ। इसके पश्चात् सूर्यजका जीव उक्त कल्पसे आकर तुम और दूसरा (रत्नमालि) जनक हुआ है। अरिन्दमका जीव, जो शतार स्वर्गमें देव हुआ था, वहाँसे आकर जनकका भाई कनक हुआ है। वह अभयघोष तपके प्रभावसे अवेयकमें उत्पन्न हुआ और फिर वहाँसे च्युत होकर हम (सर्वभूतहितशरण्य) हुए हैं । इस प्रकार उन सर्वभूतहितशरण्य मुनिके द्वारा प्ररूपित अपने पूर्वभवोंको सुनकर राजा दशरथ उन्हें नमस्कार करके अपने नगरमें वापिस आ गया और अपराजिता आदि पट्ट १. ज प ब श सूर्ययो। २. प सूर्ययेन । ३. ज प्रवद्राजे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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