Book Title: Punyasrav Kathakosha
Author(s): Ramchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 332
________________ : ६–१२, ५३ ] ६. दानफलम् १२ आयुरन्ते विजयद्वारवासिविजये यक्षस्य देवी ज्वलनवेगा बभूव । ततो बहु भ्रमित्वा जम्बूद्वीपपूर्वविदेहेर म्यावतीविषयेशालिग्रामे ग्रामकूटकयति देवसेनयोर्यज्ञदेवी जाता । सा एकदा पूजोपकरणेन यक्षं पूजयितुं गता । तत्र धर्मसेनमुनिनिकटे धर्ममाकर्ण्य मुनिभ्य आहारदानमदत्त । विमलाचलमेकदा सखीभिः सह क्रीडितुं गता । अकालवृष्टिभयात् गुहां प्रविष्टा सिंहेन भक्षिता, मृता हरिवर्षे जाता, ततो ज्योतिर्लोके, ततो जम्बुद्वीपपूर्वविदेह पुष्कलावतीविषय वीतशोकपुरेशा शोकश्रीमत्योः श्रीकान्ता जाता कन्यैव जिनदत्तार्थिकान्ते दीक्षया दीक्षिता माहेन्द्रस्य प्रिया भूत्वा त्वं जातासि । इह तपसा कल्पवासिदेवो भूत्वागत्य मण्डलेश्वरो भविष्यसि तपसा मुक्तश्च । हृष्टा सा श्रुत्वा । इति विवेकविकलापि कुटुम्बिनी दानफलेनैवंविधा जातान्यः किं न स्यादिति ॥ ११॥ [ ५३ ] गान्धारी विष्णुजाया सुर-नरभवजं भुक्त्वा वरसुखं दत्तान्ना' शुद्धभावाच्चिर विगतभवे याभून्नृपवधूः । ३११ करके उसे व्रत ग्रहण करा दिये । वह आयुके अन्तमें मरकर विजयद्वारके ऊपर स्थित विजय यक्षकी ज्वलनवेगा नामकी देवी उत्पन्न हुई । तत्पश्चात् वह अनेक योनियों में परिभ्रमण करके जम्बूद्वीप के पूर्वविदेह में रम्यावती देशके अन्तर्गत शालिग्राममें ग्रामकूट ( ग्रामप्रमुख ) यक्षिल और देवसेना दम्पतीके यक्षदेवी नामकी पुत्री हुई। एक दिन वह पूजाके उपकरण लेकर यक्षकी पूजाके लिये गई थी । वहाँ उसने धर्मसेन मुनिके निकटमें धर्मश्रवण करके मुनियोंके लिये आहारदान दिया । एक समय वह सखियों के साथ क्रीड़ा करनेके लिये विमल पर्वत पर गई । वहाँ असामयिक वर्षाके भयसे वह एक गुफा के भीतर प्रविष्ट हुई, जहाँ उसे सिंहने खा डाला। इस प्रकारसे मरणको प्राप्त होकर वह हरिवर्ष क्षेत्र (मध्यम भोगभूमि) में उत्पन्न हुई । पश्चात् वहाँ से वह ज्योतिर्लोक में गई और फिर वहाँ से च्युत होकर जम्बूद्वीप के पूर्वविदेह में पुष्कलावती देशके अन्तर्गत वीतशोकपुरके राजा अशोक और रानी श्रीमतीके श्रीकान्ता नामकी पुत्री उत्पन्न हुई । रानी श्रीमतीके श्रीकान्ता नामकी पुत्री उत्पन्न हुई। उसने कुमारी अवस्था में ही जिनदत्ता आर्यिका के समीपमें दीक्षा ग्रहण कर ली । उसके प्रभावसे वह शरीरको छोड़कर माहेन्द्र इन्द्रकी वल्लभा हुई । तत्पश्चात् I वहाँ से च्युत होकर तुम ( सुसीमा ) उत्पन्न हुई हो । यहाँपर तुम तपको स्वीकार करके उसके प्रभावसे कल्पवासी देव होओगी और फिर वहा से च्युत होनेपर मण्डलेश्वर होकर तपश्चरणके प्रभावसे मुक्तिको भी प्राप्त करोगी । इस प्रकार वरदत्त गणधर के द्वारा निरूपित अपने भवोंको सुनकर सुसीमा को बहुत हर्ष हुआ। इस प्रकार विवेकसे रहित भी वह कुटुम्बिनी (कृषक-स्त्री) जब दान के फलसे इस प्रकारकी विभूतिसे युक्त हुई है तब भला अन्य विवेकी भव्य जीव क्या उसके फलसे वैसी विभूतिसे संयुक्त न होगा ? अवश्य होगा ॥ ११ ॥ जिसने कुछ भवोंके पूर्वमें रुद्रदास राजाकी पत्नी होकर शुद्ध भावसे मुनिके लिए आहार दिया था वह देव और मनुष्य भवके उत्तम सुखको भोगकर कृष्णकी पत्नी गान्धारी हुई । १. फ विदेहे । २. फ विषये । ३. फ ब यक्षा देवी । ४. ज़ प द्योतिर्लोके श योतिर्लोके । ५. फ दत्तान्नं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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