Book Title: Punyasrav Kathakosha
Author(s): Ramchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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२८६ पुण्यास्रवकथाकोशम्
[६-४, ४५ : मकारि । श्रेष्ठिवनिताधारिण्या[ण्य]प्येतदानानुमतजनितपुण्यप्रभावेन मेरुदत्तस्यैव भार्या भवेयमिति निदानमकार्षीत् । इति निदाने सति श्रेष्ठो बुभुजे । कालान्तरे मृत्वा तत्रैव विषये पुण्डरीकिणीपुरे प्रजापालो नरेशः, कनकमाला देवी, तन्नन्दनो लोकपालः । तत्प्रजापालराजस्य कुबेरमित्रनाम-राजश्रेष्ठी बभूव । धारिणी तच्छष्टिनी धनवती जाता। स शक्तिसेनस्तयोः सुतः कुबेरकान्तनामाजनि। साटवीश्रीः कुबेरमित्रभगिन्याः कुबेरमित्रायाः समुद्रदत्तवनितायाः प्रियदत्ताभिधा सुता बभूव । सहस्रभटमरणमाकर्ण्य स उष्ट्रग्रीवः सुकान्तरतिकान्तयोर्गृहं ज्वालयामास । तत्पोरैः सोऽपि तत्रैव विनिक्षिप्तः। दम्पती रतिवररतिवेगाख्यं कुबेरमित्रश्रेष्टिगृहे कपोतमिथुनमभूत् । उष्ट्रग्रीवः पुण्डरीकिणीसमीपजम्बूग्रामे मार्जारो उजनि । तत्पारापतयुगं कुबेरकान्तकुमारस्यातिप्रियं जातम् । तेनैव सार्धं पपाठ।
एकदा श्रेष्ठिभवनपश्चिमदेशवयुद्यानं सुदर्शनाख्यश्चारणः समागतः । तं कपोतयुगेन सह गत्वा श्रेष्ठिपुत्रो ववन्दे । धर्मश्रुतेरनन्तरमेकपत्नीव्रतमाददौ । तन्न कोऽपि वेत्ति । तद्विवाहनिमित्तं श्रेष्ठी गुणवती-यशोव [म] त्याख्य राज्ञः कुमार्यो, प्रियदत्तामन्येषामपि इभ्यानां पञ्चोत्तरशतकन्याः; एवमष्टोत्तरशतकुमार्यो याचितः प्राप्ताश्च। विवाहोद्यमे क्रियमाणे कपोताभ्यां प्रभावसे मैं इसकी पत्नी होऊँगी' ऐसा निदान कर लिया। सेठकी पत्नी धारिणीने भा 'इस दानकी अनुमोदनासे उत्पन्न पुण्य के प्रभावसे मैं मेरुदत्तकी ही पत्नी होऊँगी' ऐसा निदान कर लिया । तब वैसा निदान कर लेनेपर मेरुदत्त सेठने शक्तिसेनके यहाँ भोजन कर लिया। फिर वह (मेरुदत्त) कुछ समयके पश्चात् मरकर उसी देशके भीतर पुण्डरीकिणी पुरमें प्रजापाल राजाके यहाँ कुबेरमित्र नामका राजसेठ हुआ। उपर्युक्त प्रजापाल राजाकी पत्नीका नाम कनकमाला और पुत्रका नाम लोकपाल था । धारिणी मरकर कुबेरमित्र राजसेठकी धनवती नामकी पत्नी हुई । वह शक्तिसेन मरकर उन दोनोंके कुबेरकान्त नामका पुत्र उत्पन्न हुआ। और वह शक्तिसेनकी पत्नी अटवीश्री कुबेरमित्रकी बहिन और समुद्रदत्तकी पत्नी कुबेरमित्राके प्रियदत्ता नामकी पुत्री उत्पन्न हुई। उधर उष्ट्रग्रीवको जैसे ही सहस्रभटके मरनेका समाचार मिला वैसे ही उसने सुकान्त और रतिकान्तके घरको अग्निसे प्रज्वलित करके भस्मसात् कर दिया। यह देखकर उस नगरके निवासियोंने उसे भी उसी अग्निमें फेंक दिया। तब सुकान्त और रतिकान्ता दोनों इस प्रकारसे मरकर कुबेरमित्र सेठके घरपर रतिवर और रतिवेगा नामका कबूतरयुगल ( कबूतर-कबूतरी) हुआ। और वह उष्ट्रग्रीव मरकर पुण्डरीकिणी पुरके समीपमें स्थित जम्बूगाँवमें बिलाव हुआ। वह कबूतरयुगल कुबेरकान्त कुमारके लिये अतिशय प्यारा हुआ, वह उसीके साथ पढ़ने लगाकुबेरकान्तके पास सीखने लगा।
एक समय सेठके भवनमें पिछले भागमें स्थित उद्यानमें एक सुदर्शन नामके चारण मुनि आये। कुबेरकान्तने उस कबूतरयुगलके साथ जाकर उन मुनिराजकी वन्दना की। तत्पश्चात् उसने उनसे धर्मश्रवण करके एकपत्नीव्रतको ग्रहण किया। परन्तु इस बातको कोई जानता नहीं था। इसीलिये कुबेरमित्रने उसके विवाह के लिये गुणवती और यशोमती ( यशश्वती ) नामकी दो राजकुमारियों, अपनी भानजी ( समुद्रदत्तकी पुत्री ) प्रियदत्ता और अन्य धनिकोंकी एक सौ पाँच; इस प्रकार एक सौ आठ कन्याओंकी याचना की जो उसे प्राप्त भी हो गई। तत्पश्चात् वह
१. प समुद्रदत्तेभ्यवनि ब समुद्रदत्तस्यः वनि श समुद्रदत्तसवनि । २. श दम्पति । ३. श कुमार्या ।
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