Book Title: Punyasrav Kathakosha
Author(s): Ramchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
View full book text
________________
२९२ पुण्यास्रवकथाकोशम्
[ ६-४, ४५ : धर्ममाकर्ण्य हिरण्यवर्ममुने रूपातिशयमालोक्याचार्यमनुप्राक्षीत् --अयंकः किमिति दीक्षितवान्। स निरूपितवान्-कुबेरकान्त श्रेष्ठिगृहे यः स्थितो रतिवराख्यः कपोतः स मुनिदानानुमोदजनितपुण्यफलेन विद्याधरचक्री हिरण्यवर्मायं जातः । इमां पुण्डरीकिणीं विलोक्य जातिस्मरो भूत्वा दीक्षितः इति । श्रुत्वा राजा धर्मफलेऽतिश्रद्धापरोऽजनि, तथान्येऽपि। तदा सा सुशीलाजिकापि स्वसमूहेन तद्वनैकस्मिन् प्रदेशे स्थिता । तामपि वन्दित्वा राजा पुरं प्रविष्टः ।
सा प्रियदत्ता मुनिसमूहं वन्दित्वागत्यार्यिकासमूहमवन्दत । तदा प्रभावती तां ज्ञात्वा पृच्छति स्म प्रियवचनेन हे प्रियदत्ते, सुखेन स्थितासि । प्रियदत्ताभणत्-हे आर्ये, कथं मां जानासि । प्रभावती स्वस्वरूपं प्रतिपाद्य पुनः पृच्छति स्म कुबेरकान्तः श्रेष्ठी कास्ते । प्रियदत्ता कथति स्म-हे प्रभावति, एकदा मया दिव्यरूपार्जिका चर्या कारयित्वा पृष्टा-विशिष्टरूपा का त्वम् , तारुण्ये किं दीतितासि । सा निरूपयति स्म-विजयार्धदक्षिणश्रेण्यां गन्धारपुरेशगन्धराजमेघमालयोः सुताहं रतिमाला, तत्रैव मेघपुरेशरतिवर्मणः प्रियाभूवम् । एकदा मद्वल्लभो मयात्र जिनालयान् वन्दितुमागतस्तदा मया ते पतिर्दृष्टः। तदनु मया मत्पतिः पृष्टः कोयमिति । निकला । वंदना करनेके पश्चात् धर्मश्रवण करके जब उसने हिरण्यवर्मा मुनिके अतिशय सुन्दर रूपको देखा तब आचार्यसे पूछा यह कौन है और किस कारणसे दीक्षित हुआ है ? इसके उत्तरमें आचार्य बोले कि कुबेरकान्त सेठके घरपर जो रतिवर नामका कबूतर था वह मुनिदानको अनुमोदनासे उत्पन्न हुए पुण्यके फलसे यह विद्याधरोंका चक्रवर्ती हिरण्यवर्मा हुआ है। इसने पुण्डरीकिणी पुरीको देखकर जातिस्मरण हो जानेके कारण दीक्षा ग्रहण कर ली है । इस वृतान्तको सुनकर वह राजा धर्मके फलके विषय में दृढ़श्रद्धालु हो गया। इसी प्रकार अन्य जनोंकी भी उस धर्मके विषयमें अतिशय श्रद्धा हो गई। उस समय वह सुशीला आर्यिका भी अपने संघके साथ उसी वनके भीतर एक स्थानमें स्थित थी। उसकी भी वंदना करके वह गुणपाल राजा अपने नगरके भीतर प्रविष्ट हुआ।
कुबेरकान्त सेठकी पत्नी प्रियदत्ता भी उस मुनिसंघकी वंदना करनेके लिये गई थी। उसने मुनिसंघकी वंदना करके उस आर्यिकासंघकी भी वंदनाकी। उस समय प्रभावतीने देखकर प्रियवचनों के द्वारा उससे पूछा कि हे प्रियदत्ता ! तुम सुखसे तो हो । तब प्रियदत्ता बोली कि हे आर्ये ! आप मुझे कैसे जानती हैं ? इसपर प्रभावतीने वह सब पूर्वोक्त वृत्तान्त कह दिया । तत्पश्चात् उसने पूछा कि कुबेरकान्त सेठ कहाँपर हैं ? उत्तरमें प्रियदत्ता बोली--हे प्रभावती ! एक समय मैंने अतिशय दिव्य रूपको धारण करनेवाली एक आर्यिकाको आहार कराकर उनसे पूछा कि ऐसे अनुपम रूपकी धारक तुम कौन हो और इस यौवन अवस्थामें किस कारण दीक्षित हुई हो ? तब वह मेरे प्रश्न के उत्तरमें बोली-विजयाध पर्वतकी दक्षिण श्रेणीमें एक गन्धारपुर है । वहाँपर एक गन्धराज नामका राजा राज्य करता है । रानीका नाम मेघमाला है। मैं इन्हीं दोनोंकी पुत्री हूँ। मेरा नाम रतिमाला है। उसी पर्वतके ऊपर स्थित मेघपुरके राजा रतिवर्मा के साथ मेरा विवाह हुआ था। एक दिन मेरा पति मेरे साथ यहाँ जिनालयोंकी वंदना करनेके लिये आया था। उस समय मैंने तुम्हारे पति ( कुबेरकान्त ) को देखा । तत्पश्चात् मैंने अपने पतिसे
१. बर्यमप्राक्षीत् । २. श कुबेरकान्ति । ३. ब सुशीलार्यिकापि । ४. ब रूपायिकाचर्यां । Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org