Book Title: Punyasrav Kathakosha
Author(s): Ramchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 318
________________ : ६–५, ४६ ] ६. दानफलम् ५ २९७ तिष्ठ । श्रेष्ठी वभाण - ममापि त्वं स्वामी, न किं रत्नानाम् । यदि प्रयोजनमस्ति तर्हि गृहाण । नृप उवाच- - त्वद्गृहे स्थितानि किं मदीयानि न भवन्ति, यदा प्रयोजनं तदानयिष्यामि । श्रेष्ठी महाप्रसाद इति भणित्वा इदानीं किं द्वीपान्तर रामनेनेति स्वगृहं प्रविश्य सुखेन तस्थौ । राजा यः सुकेतुं शंसति तस्य प्रसन्नो भवति । मणिनागदत्तस्तु तं द्वेष्टि । एकदास्थानमध्ये राजा सुकेतुं प्रशशंस । तदसहमानो जिनदेवश्रेष्ठी वभाण देव, किमस्य रूपं गुणमैश्वर्यं वा त्वया स्तूयते । यदि रूपगुणैस्तर्हि स्तूयताम्, यदि श्रियं तनेन मां धनवादं कारयित्वा यो जयति स स्तूयताम् । तदा सुकेतुरबत - किमैश्वर्य गर्वेण, तूष्ण तिष्ठ | जिनदेव उवाच - - पुरुषेण काचित् ख्यातिः कर्तव्या, मया प्रार्थितोऽसि सर्वथा मया सह वादं कुरु । सुकेतुरभणज्जैनस्य नोचितम् । तथापि जिनदेव आग्रहं न [ना] त्याक्षोत्' । तदनु तदुपरोधेनाभ्युपजगाम सुकेतुः । तदनु 'यो जयति स इतरस्याः श्रियः स्वामी भवति' इति प्रतिज्ञापत्रं विलिख्य राजहस्ते दत्त्वोभौ स्वगृहे जग्मतुः स्वद्रव्यं चतुष्पथे राशीकारयामासतुः । राजादिभिस्तौ परीक्ष्य सुकेतवे जयपत्रं दत्तम् । तदा जिनदेवोऽभणत् मया सुनकर सेठ बोला कि तुम इन रत्नोंके ही स्वामी नहीं हां, बल्कि मेरे भी स्वामी हो । यदि आवश्यकता हो तो उनको ले लीजिए । इसपर राजाने सेठसे कहा कि क्या तुम्हारे घरमें स्थित रहकर वे रत्न मेरे नहीं हो सकते हैं ? जब मुझे आवश्यकता होगी उन्हें मँगा लूँगा । इसपर सेठने कहा कि यह आपकी महती कृपा है । तत्पश्चात् अब द्वीपान्तर जानेसे कुछ प्रयोजन नहीं रहा, यह सोचकर वह सुकेतु सेठ अपने घरमें प्रविष्ट होकर वहाँ ही सुखपूर्वक स्थित हो गया । अब जो भी मनुष्य सेठ सुकेतु की प्रशंसा करता उसपर राजा - प्रसन्न रहता । परन्तु मणिनागदत्त उस सेठसे द्वेष करता था । एक समय राजाने राजसभा के बीच में सेठ सुकेतुकी प्रशंसा की। उसे जिनदेव सेठ सहन नहीं कर सका । वह बोला- हे देव ! आप क्या सुकेतुके रूपकी प्रशंसा करते हैं, या गुणकी प्रशंसा करते हैं, या लक्ष्मीकी प्रशंसा करते हैं ? यदि आप रूप और गुणोंके कारण उसकी प्रशंसा करते हैं तो भले ही करिये, परन्तु यदि लक्ष्मी के आश्रयसे उनकी प्रशंसा करते हैं तो मेरे साथ उसका धनवाद कराकर - मेरे और उसके बीच धनकी परीक्षा कराकर - जिसकी उसमें विजय हो उसकी प्रशंसा कीजिए। इस धन विषयक विवादको देखकर सुकेतुने जिनदेवसे कहा कि तुम लक्ष्मीका अभिमान क्यों करते हो, चुप बैठो न । इसपर जिनदेवने कहा कि मनुष्यको किसी न किसी प्रकारसे कुछ कीर्ति अवश्य कमानी चाहिए । इसीलिए मैं तुमसे यह प्रार्थना करता हूँ कि तुम सब ही प्रकारसे मेरे साथ धनके सम्बन्धमें वाद करो । यह सुनकर सुकेतुने कहा कि किसी भी जैन व्यक्ति के लिए ऐसा करना योग्य नहीं है । परन्तु फिर भी जिनदेवने अपने दुराग्रहको नहीं छोड़ा। तब उसके अतिशय आग्रहसे सुकेतुको उसे स्वीकार करना पड़ा । तत्पश्चात् उन दोनोंने यह प्रतिज्ञापत्र लिखकर राजाके हाथमें दे दिया कि हम दोनोंमेंसे इस विवाद में जो भी विजयी होगा वह दूसरे की भी समस्त सम्पत्तिका स्वामी होगा । फिर उन दोनोंने अपने अपने घर से धनको लाकर चौराहेपर ढेर कर दिया। तत्पश्चात् राजा आदिने उस धनके विषयमें उन दोनों की परीक्षा करके सुकेतु के लिए विजयपत्र प्रदान किया । तब जिनदेव बोला कि वास्तव में विजय मेरी १. श न त्यांक्षीत् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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