Book Title: Punyasrav Kathakosha
Author(s): Ramchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 317
________________ २९६ पुण्यात्रवकथाकोशम् [ ६-५, ४६ : धारिणी गृहाद्रवतीं तत्र निनाय । सोऽतिथिसंविभागव्रतयुत इति यतिमार्गान्वेषणं कुर्वन् तस्थौ । तदा गुणसागरमुनिः प्रतिज्ञावसाने तत्र चर्यार्थमागतः । स यथोक्तवृत्त्या स्थापयामास, नैरन्तर्यानन्तरं पञ्चाश्चर्याणि लेभे । तत्र तदधिकपरिणामवशेन सार्धत्रिकोटिरत्नानि तदावासाग्रे गलितानि । तानि नागदत्तो मम नागभवनाग्रे गलितानीति संजग्राह । ततः पुनः तत्रैवागत्य स्थितानि । पुनः संगृहीतवान् पुनर्गतानि । ततो रुष्टो नागदत्त इमानि स्फोटयिष्यामीत्येकेन रत्नेन शिलां जघान । ततस्तद्व्याघुटयागत्य तल्ललाटे लग्नम् | ततो देवैरुपहास्येन मणिनागदत्त इत्युक्तः । ततः कोपेन गत्वा स वसुपालं विज्ञप्तवान्- देव मया भवनाम्ना नागभवनं कारितम्, तदग्रे रत्नवृष्टिर्जाता, तानि त्वया स्वभाण्डागारे स्थापनीयानि । राजाबूत - मम कारणं नास्ति । तदा स तत्पादयोर्लग्नस्तदुपरोधेन नृपस्तथा चकार । तानि तत्रैव गत्वा स्थितानि । तदा राजा विचारयामास किमिति रत्नवृष्टिर्बभूव । कश्चिदबूतसुकेतुश्रेष्ठकृतगुणसागरमुनिदानप्रभावेनेमानि गलितानि । श्रुत्वा राजा मया अपरीक्षितं कृतमिति कृतपश्चात्तापः सुकेतुमाह्राययति स्म । तदनु सुकेतुः पञ्चरत्नानि कल्पतरुकुसुमानि च गृहीत्वा जगाम राजानं ददर्श । राजाब्रूत - यन्मयापरीक्षितं कृतं तत्क्षमित्वा स्वगृहे सुखेन गया । मध्याह्नके समयमें उसकी पत्नी धारिणी उसके लिए घरसे भोजन लायी । सेठ अतिथिसंविभाग व्रतका धारी था । इसलिए वह चर्याके लिए मुनिकी प्रतीक्षा करने लगा । उसी समय एक गुणसागर नामके मुनि अपनी प्रतिज्ञाको पूरी करके वहाँ चर्याके लिए आये । सेठने यथोक्त विधिसे पड़िगाहन करके उन्हें आहार दिया । उनका निरन्तराय आहार हो जानेपर वहाँ पंचाश्चर्य हुए । सेठ के अतिशय निर्मल परिणामोंके कारण उसके निवासस्थानके आगे साढ़े तीन करोड़ रत्न गिरे | उन्हें नागदत्तने यह कहकर कि 'ये मेरे नागभवन के आगे गिरे हैं' ग्रहण कर लिया । परन्तु वे रत्न फिरसे भी वहीं आकर स्थित हो गये । तब नागदत्तने उन्हें फिरसे उठा लिया । परन्तु वे फिर भी न रह सके और वहीं जा पहुँचे । यह देखकर नागदत्तको क्रोध आ गया । तब उसने उनको फोड़ डालनेके विचारसे एक रत्नको शिलाके ऊपर पटक दिया । परन्तु वह उस शिलासे टकराकर वापिस आया और नागदत्तके मस्तक में लग गया । यह दृश्य देखकर देवोंने उसका उपहास करते हुए मणिनागदत्त नाम रख दिया । तत्पश्चात् नागदत्तने क्रोध के साथ वसुपाल राजाके पास जाकर उससे प्रार्थना की कि हे देव ! मैंने आपके नामसे जो नागभवन बनवाया है उसके आगे रत्नों की वर्षा हुई है । उन रत्नोंको मँगवाकर आप अपने भाण्डागार में रखवालें । इसपर राजाने कहा कि मेरे लिए उन्हें भाण्डागार में रखवा लेनेका कोई कारण नहीं है। यह उत्तर सुनकर नागदत्त राजाके पैरोंमें गिर पड़ा । तब उसके अतिशय आग्रहसे राजाने वैसा ही किया । परन्तु वे रत्न फिर उसी स्थानपर वापिस जाकर स्थित हो गये । तब राजाने विचार किया कि रत्नवृष्टि किस कारणसे हुई है । इसपर किसीने कहा कि सुकेतु सेठने गुणसागर मुनिके लिए आहार दिया है, उसके प्रभावसे ये रत्न बरसे हैं। यह सुनकर राजाने कहा कि मैंने यह बिना विचारे कार्य किया है । इससे उसे बहुत पश्चात्ताप हुआ । तब उसने सुकेतु सेठको बुलाया । तदनुसार सुकेतुने पाँच रत्न और कल्पवृक्षके फूलोंको ले जाकर राजाका दर्शन किया। राजा उससे बोला कि मैंने जो अज्ञानता वश यह कार्य किया है उसके लिए मुझे क्षमा करो और अपने घरपर सुखसे रहो । यह १. ब चर्यार्थ गतः । २ ब त्रिकोटीनि रत्नानि । ३ ब प्रतिपाठोऽयम् । श स जग्राह । ४. श स्तदपराधे नृप । ५. ब माह्वयति स्म । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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