Book Title: Punyasrav Kathakosha
Author(s): Ramchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 320
________________ ६. दानफलम् ५ २९९ तमुहं मर्कटवेषमाददे, मां शृङ्खलया बद्ध्वा सुकेतुनिकटं नय । स यदा 'किमित्ययं वानर श्रानीतः' इति पृच्छति तदा त्वमेवं भण "अहं वनं गतस्तत्रामुं वानरमपश्यम् । 'किमवलोकसे' इति स्पष्टमबूत । मयोक्तम्-धानरो मनुष्य इव वषे। अयमब त-नाहं वानरः । किं तर्हि । पुण्यदेवता । मे विरूपकः स्वभावोऽस्ति । स क इत्युक्ते यो मे स्वामी स्यात्तेन दत्तं प्रेषणं सर्व करोमि । प्रेषणं न ददाति चेन्मारयामीति कमपि नाश्रयामि, वने तिष्ठामीत्यनेन भणिते मया त्वदन्तिकमानीतो यदि प्रेषणं दातुं शक्तोऽसि तर्हि स्वीकुरु, नोचेन्मुञ्चामि" इति । तत्र नीत्वा तथोक्तवान् नागदत्तस्तं सुकेतः स्वीचकार । स प्रेषणं याचितवान् । सुकेतुरभणत् अस्मात्पुराद् बहिरनेकजिनालययुतं रत्नमयं परं करु। करोमि, मां मुञ्च । मुक्तः श्रेण्ठिना स बहिर्गत्वा जनकौतकं तथाविधं परं क्रत्वा पुनरागत्य प्रेषणं ययाचे । श्रेष्ठी बभाण-यावदहं राजसमीपं गत्वागच्छामि तावत्तिष्ठात्रैवेति निरूप्य राजसमोपं गत्वोक्तवान् श्रेष्ठी-देव, मया बहिः पुरं कारितम्, तत्र त्वं राज्यं कुरु । राजा न्यगदत्-त्वत्पुण्योदयेन तत्पुरं जातम् , तत्र त्वमेव राज्यं कुरु । 'प्रसादः' इति नागदत्त-किसी भी उपायसे उसे तुम मार डालो, उसका मर जाना ही मेरे लिए पर्याप्त है। उत्पल -तो फिर मैं बन्दरके वेषको ग्रहण कर लेता हूँ, तुम मुझे उस वेषमें साँकलसे बाँधकर सुकेतुके पास ले चलना । जब वह तुमसे पूछे कि इस बन्दरको यहाँ किस लिए लाये हो, तब तुम इस प्रकार उत्तर देना- मैं वनमें गया था। वहाँ मैंने जैसे ही इस बन्दरको देखा वैसे ही इसने मुझसे स्पष्ट शब्दोंमें कहा कि तुम क्या देखते हो। इसपर मैंने कहा कि बन्दर होकर तुम मनुष्यके समान बोलते हो। तब यह बोला कि मैं बन्दर नहीं हूँ, किन्तु पुण्यदेवता हूँ । मेरा स्वभाव विपरीत है । वह यह कि जो भी मेरा स्वामी होता है उसके द्वारा दी गई समस्त आज्ञाको मैं शिरोधार्य करता हूँ। परन्तु यदि वह आज्ञा नहीं देता है तो फिर मैं उसे मार डालता हूँ। इसीलिए मैं किसीके आश्रित नहीं रह पाता हूँ, वनमें रहता हूँ। इसके इस प्रकार कहनेपर मैं इसे तुम्हारे पास ले आया हूँ । यदि तुम इसे आज्ञा देनेमें समर्थ हो तो ग्रहण कर लो, अन्यथा छोड़ देता हूँ । इस प्रकार उस उत्पलके कहे अनुसार नागदत्त उसे बन्दरके वेषमें सुकेतुके पास ले गया और फिर उसने सेठसे वैसा ही सब कह दिया । तब सुकेतुने उसे स्वीकार कर लिया। तब वहाँ स्थित होकर उत्पलने उस बन्दरके वेषमें सेठसे आज्ञा माँगी। इसपर सेठने कहा कि इस नगरके बाहर अनेक जिनालयोंसे संयुक्त रत्नमय नगरका निर्माण करो । यह आज्ञा पाकर उसने कहा कि ठोक है मैं वैसा करता हूँ, मुझे छोड़ दीजिये। इसपर सेठने उसे छोड़ दिया। तब उसने बाहर जाकर लोगोंको आश्चर्यमें डालनेवाले वैसे ही नगरका निर्माण कर दिया । वहाँसे वापस आकर उसने पुनः सेठसे आज्ञा माँगी। तब सेठने कहा कि जब तक मैं राजाके पास जाकर वापस नहीं आता हूँ तब तक यहींपर बैठो। यह कहकर सेठ राजाके पास गया और उससे बोला कि हे देव ! मैंने इस नगरके बाहर एक अन्य नगरका निर्माण कराया है, आप वहाँपर रहकर राज्य करें । इसपर राजाने कहा कि तुम्हारे पुण्यके उदयसे ही उस नगरकी रचना हुई है, इसलिये वहाँपर तुम ही राज्य करो। तब सेठ 'यह आपकी बड़ी कृपा है' कहकर अपने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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