Book Title: Punyasrav Kathakosha
Author(s): Ramchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 311
________________ पुण्यावकथाकोशम् [ ६-४, ४५ : तत्पादयोर्लग्नौ । स तयोर्योग्यान्याभरणानि कारयति स्म। एकदा तैर्विभूषितौ' विमलजलानदीतीरे वालुकानामुपरि क्रीडन्तौ स्थितौ । तदा दिव्यविमानेन खे गच्छत् विद्याधरयुगलमालोक्य श्रेष्ठिदत्तपुण्यफलेन भाविभवे ईदृशौ खेचरौ भविष्याव इति कृतनिदानावेकदा जम्बूग्रामे चैत्यालयाग्रे जननिक्षिप्ताक्षतान् भक्षयन्तौ श्रतिष्ठताम् । तेन बिडालेन रतिचरो धृतः । तं मार्जारं रतिवेगा मस्तके चञ्च्वा हन्ति स्म । तदा स रतिवरं विमुच्य रतिवेगां धृतवान् । सा जनेन मोचिता । तौ कण्ठगतासू वसतिं प्रवेश्यायिकास्ताभ्यां पञ्चनमस्कारान् ददुः । रतिवरो मृत्वा तद्विषयविजयार्धदक्षिणश्रेणी सुसीमानगराधिपादित्यगतिशशिप्रभोः हिरण्यवर्मनामा पुत्रोऽभूदतिरूपवान् । रतिवेगा वितनुर्भूत्वा तद्गिरेरुत्तरश्रेण्यां भोगपुर पति वायुरथस्वयंप्रभयोः प्रभावती सुता जाता सहस्रकुमारीणां ज्यायसी । ते हिरण्य २९० प्रभावत् साधितसकलविद्ये प्राप्तयौवने जाते। एकदा वायुरथ उवाच 'पुत्रि, सकलविद्या - धरयुवसु ते को वियच्चरः प्रतिभाति, तेन ते विवाहं करिष्यामि' इति । प्रभावती न्यगदत् यो मां गतियुद्धे जयति सः, नान्यः । तद्भगिनीभिरप्येतस्या वरोऽस्माकं वरो नो चेत्तप इत्युक्तम् । इससे सन्तुष्ट होकर वे दोनों उसके पैरोंमें गिर गये । उसने उन दोनों को योग्य आभरणों से विभूषित किया । वे दोनों उन आभरणोंसे विभूषित होकर किसी एक दिन विमलजला नदी के किनारे बालुका के ऊपर क्रीड़ा कर रहे थे । उस समय वहाँ से एक विद्याधरयुगल ( विद्याधर व उसकी पत्नी ) दिव्य विमानसे आकाशमें जा रहा था । उसको देखकर कबूतरयुगलने यह निदान किया कि सेठके द्वारा दिये गये पुण्यके प्रसादसे हम दोनों आगेके भवमें इस प्रकार के विद्याधर होंगे । तत्पश्चात् वे दोनों एक दिन जम्बूग्राम में स्थित चैत्यालयके आगे जनोंके द्वारा फेंके गये चावलोंको चुगते हुए स्थित थे । उसी समय उस बिलावने आकर रतिवरका गला पकड़ लिया । तब उस बिलाव को देखकर रतिवेगाने अपनी चोंचसे उसके मस्तक के ऊपर प्रहार किया । इससे क्रोधित होकर उस बिलाचने रतिवरको छोड़कर उस रतिवेगाको पकड़ लिया । परन्तु लोगोंने देखकर उसे उस बिलाचके पंजेसे छुड़ा दिया । इस प्रकारसे मरणासन्न अवस्था में उन दोनोंको चैत्यालय के भीतर प्रविष्ट कराकर आर्यिकाने पञ्चनमस्कार मन्त्रको दिया । उसके प्रभावसे रतिवर मृत्युके पश्चात् उसी देशमें स्थित विजयार्ध पर्वतकी दक्षिण श्रेणी में सुसीमा नगरके स्वामी आदित्यगति और शशिप्रभा हिरण्यवर्मा नामका अतिशय रूपवान् पुत्र हुआ । और वह रतिवेगा कबूतरी शरीरको छोड़कर उसी विजयार्ध पर्वतकी उत्तर श्रेणी में स्थित भोगपुर के राजा वायुरथ और रानी स्वयंप्रभा के प्रभावती नामकी पुत्री उत्पन्न हुई । वह उनकी एक हजार कुमारियोंमें सबसे बड़ी थी । हिरण्यवर्मा और प्रभावती ये दोनों समस्त विद्याओंको सिद्ध करके यौवन अवस्थाको प्राप्त हुए। एक समय वायुरथ उस प्रभावतीको युवती देखकर बोला कि हे पुत्र ! समस्त विद्याधर युवकों में से कौन-सा विद्याधर युवक तेरे लिए योग्य प्रतिभासित होता है, उसके साथ मैं तेरा विवाह कर दूँगा । इसके उत्तर में प्रभावती बोली कि जो मुझे गतियुद्ध में जीत लेगा वह मुझे योग्य प्रतीत होता है, दूसरा नहीं । उसकी बहिनों ने भी कहा कि इसका जो पति होगा वही हम सबका भी पति होगा, और यदि यह सम्भव नहीं हुआ तो हम तपको स्वीकार करेंगी । इसपर १. तो विभूषितौ । २. ब प्रतिपाठोऽयम् । श प्रविश्यायिका । ३ ज प श भोगपतिपुरवायु । ४. व युवसु तेषु को । ५. श 'तेन' नास्ति । ६. श प्रभावंती । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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