Book Title: Punyasrav Kathakosha
Author(s): Ramchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 305
________________ २८४ पुण्यास्रवकथाकोशम् [६-४, ४५ : हे नाथाहं रतिवरं स्मृत्वा मूर्छिताभूवम् , स रतिवरः क्व' इति जातोऽस्ति । स जजल्पाहमेव । ततो बभाण राजा-देवि, प्रभावती बुध्यसे । देव्यहमेवेत्यत । तया जयोऽवोचत्-प्रिये, श्रावयोर्भवानेतेषां कथय । तदाकथयत् सा। कथमित्युक्ते अत्रैव पूर्वविदेहपुष्कलावतीविषये मृणालपुरे राजा सुकेतुः तत्र वैश्यः श्रीदत्तो भार्या विमला, पुत्री रतिकान्ता', विमलायाः भ्राता रतिवर्मा, वनिता कनकधीः, पुत्रो भवदेवः दीर्घग्रीव इति जनेनोएग्रीव इत्युच्यते । स स्वमामं रतिकान्तां याचितवान् । मातुलोऽभणत्-त्वं व्यवसायहीन इति न ददामि। उष्ट्रग्रीवोऽवोचत्- यावदहं द्वीपान्तराद् द्रव्यं समुपाया॑गच्छामि तावत् रतिकान्ता कस्यापि न दातव्या । द्वादश वर्षाणि कालावधिं दत्त्वा द्वीपान्तरं गतः। कालावध्यतिक्रमेऽशोकदेवजिनदत्तयोः पुत्राय सुकान्ताय दत्ता। स आगतः सन् तद्वत्तान्तमवगम्य तन्मारणार्थ भृत्यान् संगृहीतवान् । रात्रौ तद्गृहे वेष्टिते सुकान्तः सवनितः पलायितः। शोभानगरेशप्रजापालो वनिता देवश्रीः, भृत्यः शक्ति सेनः सहस्रभटः । स राक्षा उत्कृष्टः थी। वह रतिवर कहाँपर उत्पन्न हुआ है ? यह सुनकर जयकुमार बोला कि वह रतिवर मैं ही हूँ। तत्पश्चात् राजा जयकुमारने भी पूछा कि हे देवि ! क्या तुम प्रभावतीको जानती हो ! इसके उत्तरमें रानी सुलोचनाने कहा कि वह प्रभावती मैं ही हूँ। तब जयकुमारने उससे कहा कि हे प्रिये ! हम दोनोंके पूर्व भवोंका वृत्तान्त इन सबको सुना दो। तत्पश्चात् उसने उन पूर्व भवोंको इस प्रकारसे कहना प्रारम्भ किया- इसी जम्बूद्वीपमें पूर्व विदेहके अन्तर्गत पुष्कलावती देशमें स्थित मृणालपुरमें सुकेतु राजा राज्य करता था। वहाँ श्रीदत्त नामका एक वैश्य था। उसकी पत्नीका नाम विमला था । इन दोनोंके एक रतिकान्ता नामकी पुत्री थी । विमलाके एक रतिवर्मा नामका भाई था। उसकी पत्नीका नाम कनक श्री था। इन दोनों के एक भवदेव नामका पुत्र था । उसकी गर्दन लम्बी थी, इसलिए लोग उसको उष्ट्रग्रीव ( ऊँट जैसी लम्बी गर्दनवाला ) कहा करते थे । उसने अपने मामा (श्रीदत्त) से अपने लिए रतिकान्ताको माँगा । इसपर मामाने कहा कि तुम उद्योगहीन हो--कुछ भी व्यापारादि काम नहीं करते हो ---इस कारण मैं तुम्हारे लिए पुत्री नहीं दूंगा । तब उष्ट्रग्रीवने कहा कि मैं धनके उपार्जनके लिए द्वीपान्तरको जाता हूँ। जब तक मैं वहाँसे वापिस नहीं आऊँ तब तक तुम रतिकान्ताको अन्य किसीके लिए नहीं देना । इस प्रकार कहकर और बारह वर्षकी कालमर्यादा करके वह द्वीपान्तरको चला गया। परन्तु जब निर्धारित कालकी मर्यादा समाप्त हो गई और उष्ट्रग्रीव वापिस नहीं आया तब श्रीदत्तने उस रतिकान्ताका विवाह अशोकदेव और जिनदत्ताके पुत्र सुकान्तके साथ कर दिया। इधर जब उष्ट्रग्रीव वापिस आया और उसने इस वृत्तान्तको सुना तब उसने सुकान्तकी हत्या करनेके लिए सेवकोंको इकट्ठा किया । उन सबने जाकर रातमें सुकान्तके घरको घेर लिया । तब सुकान्त किसी प्रकारसे रतिकान्ताके साथ उस घरसे निकलकर भाग गया । इधर शोभानगरमें प्रजापाल राजा राज्य करता था । रानीका नाम देवश्री था । प्रजापालके एक शक्तिसेन नामका सेवक था जो हजार योद्धाओंके बराबर बलशाली था। राजाने उसे ऊँचा पद १. ज श 'क' । २. ब जातोसि । ३. ब प्रभावति । ४. श रभिकान्ता। ५. श शोभागनगरेश । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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