Book Title: Punyasrav Kathakosha
Author(s): Ramchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 308
________________ : ६-४, ४५ ] ६. दानफलम् ३-४ २८७ लिखित्वा दर्शितं कुमारस्यैकपत्नीव्रतमिति । तदनु भातापितृभ्यां पृष्टेनो [नौ] मिति' भणितम् । ततः श्रेष्ठी विषण्णोऽभूत् । सर्वासु मध्ये का प्रिया भविष्यतीति परीक्षानिमित्तं तत्पुरबहिःस्थशिवंकरोद्यानमध्यवर्तिजगत्पाल चक्रेश्वरकारितजिनालये पूजां कारितवान् , तहिनेऽष्टोत्तरशतकुमारीणां गुणवती यशोमतीप्रभृतीनामुपवासं कर्तुं च निरूपितवान् । तदा राजादीनां कौतुकोत्पादकमभिषेकादिकं चकार' जागरणं च । प्रातरष्टोत्तरशतस्वर्णपात्रेषु पायसं परिविष्टम् । तस्योपरि सुवर्णवर्तुलेषु भृत्वा घृतं निधायैकस्मिन् वर्तुलके रत्नं निक्षिप्तम् । तत्प्रमाणभाजनेषु वस्त्राभरणविलेपनादिकं निधाय तानि सर्वाणि भाजनानि यक्षाने निधाय श्रेष्ठी कन्यानामतैकैकपायसभाजनं वस्त्रादिभाजनं गृहीत्वा गच्छथ, सु दर्शनसरस्तटे भुक्त्वा शृङ्गारं कृत्वागच्छथेति। ताः सर्वाः कुवेरकान्तायास कास्तन्नाम्ना बुभुजिरे शृङ्गारं चक्रुः, समागत्य स्व-स्वपितृसमीपे उपविविशुः । तदा श्रेष्ठी बाणैकस्मिन् वर्तुलके रत्नं स्थितम् , तत्कस्या हस्तमागतम् । प्रियदत्तयोक्तम्- माम, मद्धस्तमागतं गृहाण । ततः स श्रेष्ठी बुबुधे इयमस्य प्रिया स्यादिति । देव, मत्पुत्रस्यैकपत्नीव्रतमिति स्वस्य स्वस्य कुमार्यो यस्मै-कस्मैचिद्दीयन्तामिति । राज्ञोक्तमस्य पुण्यमूतरेकपत्नीव्रतकारणं नास्तीति नानाप्रकारैनि उसके विवाहकी तैयारी भी करने लगा। यह देखकर उस कबूतरयुगलने लिखकर दिखलाया कि कुमार कुबेरकान्तके एकपत्नीव्रत है। तत्पश्चात् जब माता-पिताने इस सम्बन्धमें उससे पूछा तब उसने इसका 'हाँ'में उत्तर दिया । इससे सेठको बहुत खेद हुआ। फिर उसने इन एक सौ आठ कन्याओंमें कुबेरकान्तको अतिशय प्रिय कौन होगी, इसकी परीक्षा करनेके लिये उस नगरके बाहरी भागमें शिवंकर उद्यानके भीतर जो जगत्पाल चक्रवर्तीके द्वारा निर्मापित चैत्यालय स्थित था उसमें जाकर पूजा करायी । उसने उस दिन गुणवती और यशोमती आदि उन एक सौ आठ कन्याओंके लिये उपवास करनेके लिये भी कहा । उस समय उसने राजा आदिको आश्चर्यान्वित करनेवाला अभिषेक आदि कराया और जागरण भी कराया। प्रातःकाल हो जानेपर फिर उसने एक सौ आठ सुवर्णपात्रोंमें खीरको परोसा और उसके ऊपर सुवर्णकी कटोरियोंमें भरकर घीको रक्खा । उनमेंसे एक कटोरीमें उसने एक रत्नको रख दिया। तत्पश्चात् कुबेरमित्रने उतने (१०८) ही पात्रोंमें वस्त्र, आभरण और विलेपन आदिको रखकर उन सब पात्रोंको यक्षके आगे रख दिया और उन सब कन्याओंसे कहा कि तुम सब एक एक खीरके पात्र और एक एक वस्त्रादिके पात्रको लेकर जाओ तथा सुदर्शन तालाबके किनारेपर भोजन करके व वस्त्राभरणोंसे विभूषित होकर वापिस आओ। वे सब कुबेरकान्तमें आसक्त थीं, इसलिये उन सबने उसके नामसे भोजन व शृंगार किया। तत्पश्चात् वे वहाँ से वापिस आकर अपने अपने पिताके समीपमें बैठ गई। उस समय कुबेरमित्र सेटने उनसे पूछा कि एक घीके पात्रमें एक रत्न था, वह किसके हाथमें आया है ? यह सुनकर प्रियदत्ताने उत्तर दिया कि हे मामा ! वह रत्न मेरे हाथमें आया है । वह यह है, इसे ले लीजिये । तब सेठने जान लिया कि यह कुबेरकान्तकी प्रिया होगी। तत्पश्चात् कुबेरमित्र सेठने राजाको लक्ष्य करके कहा कि हे देव ! मेरे पुत्रके एकपत्नीव्रत है, अत एव आप अपनी अपनी पुत्रियोंको १.श पप्टेतनोमिति। २.ब यशोवती। ३. ब पायसभाजनं च गहीत्वा। ४. ज तन्नात्मा पतन्नाना। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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