Book Title: Punyasrav Kathakosha
Author(s): Ramchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 306
________________ : ६-४, ४५ ] ६. दानफलम् ३-४ २८५ कृतः प्रजाबाधानिवारणार्थ धनगाटव्यां रम्यातटसरस्तटे स्थानान्तरे व्यवस्थापितः । सुकान्तस्तं शरणं प्रविष्टः । उष्ट्रग्रीवः तत्पृष्ठतः प्राप्य तच्छिबिराद् बहिः स्थित्वोक्तवान्मदीयोऽरिरत्र प्रविष्टो हे शिबिरस्थाः समर्पयध्वम् , नो चेत् यूयं जानीथ । तदा सहस्रभटः सचापो निर्गत्योक्तवान्– अहं सहस्रभटो मां शरणं प्रविष्टं याचसे, किं त्वत्सामर्थ्यम् । सोऽवोचदह कोटीभटः । सहस्रभटो वभाण- सहस्रभटः कोटिभटेन सह युद्ध्वा मृतः इति ख्याति करोमि, संनद्धो भव । उष्टग्रोवस्ततोऽपससार । सुकान्तरतिकान्ते तन्निकटे तत्रैव स्थिते। एकदा अमितगतिनाम्नो जङ्घाचारणान् स्थापितवान् शक्तिसेनः पञ्चाश्चर्याण्यवाप। तत्सरोऽन्यस्मिन् तटे विमुच्य स्थितो मेरुदत्तश्रेष्ठी तं दानपतिं द्रष्टुमागतः। तेन भोक्तु प्रार्थितः स बभाण-भोये ऽहं यदि मेभणितं करोषि । ततोते ततस्ते]नाभाणिऽहं करिष्येभणत्[भणतु] । श्रेष्ठी बभाण- त्वयैवं भणितव्यमेतदानप्रभावेण भाविभवे तव पुत्रो भविष्यामीति। शक्तिसेन उवाच-किमिदं तवोचितम् । स बभाणोचितम् । तदा तेनेदं निदानमकारि । तद्वनिताटवीश्रीस्तयाप्येतद्दानानुमोदजनित पुण्येनैतद्वनिता भविष्यामीति निदानप्रदान कर उत्कृष्ट करते हुए प्रजाकी बाधाको दूर करने के लिये धन्नगा नामकी अटवी ( वन ) में रम्यातट सरोवरके किनारे स्थानान्तरित किया था। वह सुकान्त वहाँ से भागकर इसकी शरणमें आया था । उधर अष्ट्रग्रीव भी उसका पीछा करके वहाँ आया और शक्तिसेनके शिबिर (छावनी) के बाहर स्थित हो गया। वह बोला कि हे शिबिरमें स्थित सैनिको ! आपके शिबिरमें मेरा शत्रु प्रविष्ट हुआ है । उसे मुझे समर्पित कर दीजिए । यदि आप उसे मेरे लिए समर्पित नहीं करते हैं तो फिर आप जानें । यह सुनकर सहस्रभट धनुषके साथ बाहर निकला और बोला कि मैं सहस्रभट हूँ, तुममें कितना बल है जो तुम मेरी शरणमें आये हुए अपने शत्रुको माँग रहे हो । इसके उत्तरमें जब उष्ट्रग्रीवने यह कहा कि मैं कोटिभट हूँ तब वह सहस्रभट बोला कि तो फिर तैयार हो जा, मैं 'सहस्रभट कोटिभटके साथ युद्ध करके मर गया [कोटिभट सहस्रभटके साथ युद्ध करके मर गया]' इस प्रसिद्धिको करता हूँ। तत्पश्चात् उष्ट्रग्रीव वहाँसे भाग गया। सुकान्त और रतिकान्ता दोनों वहींपर सहस्रभटके समीपमें स्थित रहे। एक समय शक्तिसेनने अमितगति नामके जंघाचारण मुनिका पड़िगाहन किया- उन्हें आहार दिया । इससे उसके यहाँ पंचाश्चर्य हुए। उसी सरोवरके दूसरे किनारेपर पड़ाव डालकर एक मेरुदत्त नामका सेठ स्थित था। वह उस प्रशस्त दाताको देखने के लिये वहाँ आया। तब शक्तिसेनने उससे अपने यहाँ भोजन करनेकी प्रार्थना की। इसपर मेरुदत्तने कहा यदि तुम मेरा कहना करते हो तो मैं तुम्हारे यहाँ भोजन कर लूंगा। उत्तरमें शक्तिसेनने कहा कि मैं आपका कहना करूँगा, कहिये । यह सुनकर सेठ बोला कि तुम यों कहो कि मैं इस दानके प्रभावसे आगामी भवमें तुम्हारा पुत्र होऊँगा। इसपर शक्तिसेन बोला कि क्या तुम्हारे लिए यह उचित है ? मेरुदत्तने उत्तरमें कहा कि हाँ, यह उचित है। तदनुसार तब शक्तिसेनने वैसा निदान कर लिया। उसकी स्त्री जो अटवीश्री थी उसने भी 'इस दानकी अनुमोदनासे उत्पन्न हुए पुण्यके १. ब राजो दुष्टः कृत प्रजाश राज उत्कृष्टः कृतः प्रजा। २. ब धन्नाटव्यां रम्यां तटे सरस्तटे । ३. श प्रविष्टः । ४. [कोटिभट सहस्रभटेन सह युद्ध्वा मृतः । ५. ५ ख्यातं । ६. श स्वकांत । ७. बनाम्ने । ८. श प्राथितः भोक्षे । ९. श करोति । १० श पुण्येनैव तद्वनिता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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