Book Title: Punyasrav Kathakosha
Author(s): Ramchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 301
________________ २८० पुण्यास्रवकथाकोशम् [६-२, ४३ : ऽभूत्। कैलासेऽतीतानागतवर्तमानचतुर्विंशतितीर्थकृजिनालयान् मणिसुवर्णमयान् कारयित्वा तत्र नामवर्णोत्सेधयक्षयकोलाञ्छनान्विताः प्रतिमा स्थापितवान् । अयोध्यामागत्य द्वारे द्वारे चतुर्विंशतितीर्थकरप्रतिमाः प्रतिष्ठापितवान् । ता वन्दनमाला जाताः । वाह्यालीदेशे मन्दरस्योपरि पञ्चपरमेष्टिप्रतिमाः प्रतिष्ठाप्याश्चमनुचटित्वा प्रदक्षिणीकरणे 'जय अरिहंत' इति पुष्पाणि निक्षिपति । स कालेन जनेन खन्तः ( ? ) कृतः । एवं धर्मैकमूर्तिर्भूत्वा सुखेन राज्यं कुर्वन् तस्थौ। इतो वृषभेश्वरः वृषभसेन १ कुम्भ २ दृढरथ ३ शतधनुः ४ देवशर्म ५ धनदेव ६ नन्दन ७ सोमदत्त ८ सुरदत्त । वायुशमे १० यशोबाहु त ८ सरदत्त । वायशर्म १० यशोबाह ११ देवमार्ग १२ कोतल १३ अग्निदेव अग्निगत १५ चित्राग्नि १६ हलधर १७ महीधर १८ महेन्द्र १६ वासुदेव २० वसंधर २१ अचल २२ मेरुधर २३ मेरुभूति २४ सर्वयशः २५ सर्वयश २६ सर्वगुप्त २७ सर्वप्रिय २८ 'सर्वदेव २६ सर्वविजय ३० विजयगुप्त ३१ जयमित्र ३२ विजयी ३३ अपराजित ३४ वसुमित्र ३५ विश्वसेन ३६ सुषेण ३७ सत्यदेव ३८ देवसत्य ३: सत्यगुप्त ४० सत्यमित्र ४१ शमंद ४२ विनीत ४३ संबर ४४ मुनिगुप्त ४५ मुनिदत्त ४६ मुनियज्ञ ४७ मुनिदेव ४८ गुप्तयज्ञ ४६ मित्रयक्ष ५० स्वयंभू ५१ भगदेव ५२ भगदत्त ५३ भगफल्गु ५४ मित्रफल्गु ५५ प्रजापति ५६ इस बातको सुनकर भरत चक्रवर्तीको बहुत खेद हुआ। उसने अपने द्वारा ही प्रतिष्ठित किये हुए उनको नष्ट करना उचित नहीं समझा। उस समय उसने कैलास पर्वतके ऊपर अतीत, अनागत और वर्तमान इन तीनों कालोंके चौबीस तीर्थंकरोंके मणि व सुवर्णमय जिनभवनोंको बनवाकर उनमें इन तीर्थंकरोंके नाम, वर्ण, शरीरकी उँचाई, यक्ष-यक्षी और चिह्नोंसे सहित प्रतिमाओंको स्थापित कराया। फिर उसने अयोध्यामें आकर प्रत्येक द्वारपर चौबीस तीर्थंकरों की प्रतिमाओंको प्रतिष्ठित कराया। वे सब प्रतिमायें वन्दनमाला बन गई थीं। इसके साथ ही उसने बाह्य वीथीप्रदेशमें मन्दरके ऊपर पाँचों परमेष्ठियों की प्रतिमाओंको प्रतिष्ठित कराया। पश्चात् घोड़ेके ऊपर चढ़कर प्रदक्षिणा करते समय उसने 'जय अरहन्त' कहते हुए पुष्पों की वर्षा की। तदनुसार उक्त वन्दनमालाकी पद्धति लोगोंमें अब तक प्रचलित है [ भरतने वन्दनाके लिये जो वह माला निर्मित करायी थी वह वन्दनमाला कहलायी, जो आज भी पृथिवीपर वन्दनमालाके नामसे रूढ है ] । इस प्रकार वह भरत चक्रवर्ती धर्मकी अनुपम मूर्ति होकर सुखसे राज्य करता हुआ स्थित था। भगवान् वृषभेश्वरने १ वृषभसेन २ कुम्भ ३ दृढरथ ४ शतधनु ५ देवशर्मा ६ धनदेव ७ नन्दन ८ सोमदत्त ६ सुरदत्त १० वायुशर्मा ११ यशोबाहु १२ देवमार्ग १३ देवाग्नि १४ अग्निदेव १५ अग्निगुप्त १६ चित्राग्नि १७ हलधर १८ महीधर १६ महेन्द्र २० वासुदेव २१ वसुंधर २२ अचल २३ मेरुधर २४ मेरुभूति २५ सर्वयश २६ सर्वयज्ञ २७ सर्वगुप्त २८ सर्वप्रिय २९ सर्वदेव ३० सर्वविजय ३१ विजयगुप्त ३२ जयमित्र ३३ विजयी ३४ अपराजित ३५ वसुमित्र ३६ विश्वसेन ३७ सुषेण ३८ सत्यदेव ३६ देवसत्य ४० सत्यगुप्त ४१ सत्यमित्र ४२ शर्मद ४३ विनीत ४४ संवर ४५ मुनिगुप्त ४६ मुनिदत्त ४७ मुनियज्ञ ४८ मुनिदेव ४९ गुप्तयज्ञ ५० मित्रयज्ञ ५१ स्वयंभू १. श 'यक्ष' नास्ति । २. श अतोऽग्रेऽग्रिम 'प्रतिमाः' पदपर्यन्तः पाठः स्वलितो जातः । ३. फ तावद्वन्दनमा। ४. ब प्याश्वान् चटित्वा। ५. ब अरहंत । ६. श जनेनरवंतः ब जनेन रेवंतः । ७. ब देवशर्म: धनदेवः श देवसर्म धनदेवः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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